Book Title: Samaysara Anushilan Part 01
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 483
________________ 477 कलश ४४ एवं ध्यान का ध्येय भगवान आत्मा तो शुद्ध चैतन्यमात्र है, एक है, अभेद है; इन २९ प्रकार के भावरूप वह नहीं है। ये २९ प्रकार के भाव तो पुद्गल ही हैं, इनमें तो एक पुद्गल ही नाचता है; जीव नहीं। अज्ञानी यह नहीं समझता; अत: इनमें अपनापन स्थापित करता है। उसका यह अपनापन स्थापित करना ही मोह में नाचना है। यद्यपि इन २९ प्रकार के भावरूप होना पुद्गल का ही परिणमन है ; तथापि अज्ञानी इसे अपना परिणमन मानता है; अत: उसकी चित्त की भूमि में इनके प्रति अपनत्व का व्यामोह नाचता है। ____ अत: आचार्यदेव कहते हैं कि यदि अज्ञानी का व्यामोह नाचता है तो नाचे, हम क्या करें? हम तो अपने में जाते हैं। अरे भाई! यह तो पुद्गल का नृत्य है, अज्ञान का नृत्य है; इसमें मेरा कुछ भी नहीं है; क्योंकि मैं तो ज्ञानानन्दस्वभावी ध्रुवतत्त्व हूँ और मेरा परिणमन तो ज्ञानदर्शन-उपयोगमय है; इंन २९ भावों रूप नहीं है। ___ मैं इन २९ प्रकार के भावों से पकड़ने में आनेवाला नहीं हूँ, पहिचानने में आनेवाला नहीं हूँ; मैं तो अपने चैतन्यलक्षण से ही लक्षित होनेवाला पदार्थ हूँ। मैं अपने चैतन्य लक्षण से ही पहिचाना जाऊँगा और मेरा चैतन्य का परिणमन ही पहिचानने का कार्य करेगा। न तो मैं रागादिभावों से पहिचाना जाऊँगा और न रागादिभाव पहिचानने का काम ही करेंगे; क्योंकि ये मेरे हैं ही नहीं, ये मुझमें हैं ही नहीं; ये तो मुझसे भिन्न पदार्थ हैं, पुद्गल हैं, अचेतन हैं, जड़ हैं । पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा इस बात को भावार्थ में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - "रागादि चिद्विकार को देखकर ऐसा भ्रम नहीं करना कि ये भी चैतन्य ही हैं; क्योंकि यदि ये चैतन्य की सर्व अवस्थाओं में व्याप्त हों तो चैतन्य के कहलायें। रागादि विकार सर्व अवस्थाओं में व्याप्त नहीं होते, मोक्ष अवस्था में उनका अभाव है और उनका अनुभव भी

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