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द्रव्य की अपेक्षा से आत्मा शुभाशुभभाव से तन्मय नहीं है - ऐसा सिद्ध किया है।
प्रवचनसार की १८९वीं गाथा में जो ऐसा कहा है कि निश्चय से आत्मा राग का कर्ता व भोक्ता है; वहाँ यह अभिप्राय है कि राग आत्मा की परिणति है, आत्मा स्वतः राग का कर्ता है तथा स्वत: भोक्ता है। पर की परिणति को जीव की कहना व्यवहारनय है तथा जीव की परिणति को जीव की कहना निश्चयनय है इस अपेक्षा से आत्मा राग का कर्ता है ऐसा उक्त कथन का अर्थ है । प्रश्न – फिर जीव राग का कर्ता है या नहीं क्या है ?
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गाथा ६७
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दोनों में सत्य
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उत्तर • अपेक्षा से दोनों ही बातें सत्य हैं । प्रवचनसार के ज्ञेयतत्त्व प्रज्ञापन में वस्तु की पर्याय सिद्ध की है, जबकि यहाँ द्रव्य सिद्ध करना है । द्रव्यदृष्टि से देखने पर वस्तु जो ज्ञायकमात्र है, उसमें राग है ही नहीं
१. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी) भाग-२, पृष्ठ ३६३-३६४ २ . वही,
पृष्ठ ३६८
प्रवचनसार में पर्याय के परिणमन की बात है और यहाँ द्रव्यस्वभाव की बात है । दोनों की अपेक्षा जुदी - जुदी है। प्रवचनसार में यह बताने का प्रयोजन है कि राग पर्याय में होता है, वह कहीं अन्यत्र या अधर में (आकाश में) नहीं होता; अपनी ही पर्याय में होता है । तथा यहाँ शुद्धस्वरूप का ज्ञान कराना है, जीव को अजीव से भिन्न बताना है ।
प्रवचनसार की गाथा १८९ में ऐसा आता है कि शुद्धनय से आत्मा विकार का कर्ता स्वत: है । पंचास्तिकाय की गाथा ६२ में भी कहा है कि आत्मा की विकारी पर्याय का परिणमन अपने षट्कारकों से स्वत: है तथा अन्य कारकों से निरपेक्ष है । अर्थात् जीव की पर्याय में जो विकार का परिणमन होता है, उसे कर्म के उदय की अपेक्षा नहीं