Book Title: Samaysara Anushilan Part 01
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 470
________________ समयसार गाथा ६८ मोहणकम्मस्सुदया दु वणिया जे इमे गुणट्ठाणा। ते कह हवंति जीवा जे णिच्चमचेदणा उत्ता॥ ६८॥ ( हरिगीत ) मोहन-करम के उदय से गुणस्थान जो जिनवर कहे । वे जीव कैसे हो सकें जो नित अचेतन ही कहे ॥ ६८॥ मोहकर्म के उदय से होनेवाले गुणस्थान सदा ही अचेतन हैं - ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है; अत: वे जीव कैसे हो सकते हैं? यद्यपि ६५, ६६ एवं ६७वीं गाथाओं में यह कहा गया था कि जीवस्थान जीव नहीं है और इस ६८वीं गाथा में यह कहा जा रहा है कि गुणस्थान जीव नहीं हैं; तथापि आचार्य अमृतचन्द्र आत्मख्याति में ६५ व६६वीं गाथा की उत्थानिका में लिखते हैं कि वर्णादिकभाव जीव नहीं हैं और ६८वीं गाथा की उत्थानिका में लिखते हैं कि रागादिभाव जीव नहीं हैं। ___ आचार्य अमृतचन्द्र वर्ण के साथ लगे आदि शब्द में नामकर्म के उदय से होनेवाले जीवस्थान, रूप, रस, गंध, स्पर्श, शरीर, संस्थान और संहनन को लेते हैं और रागादि में लगे हुए आदि शब्द में मोहकर्म के उदय में होनेवाले द्वेष, मोह, प्रत्यय, कर्म, नोकर्म, वर्ग, वर्गणा, स्पर्धक, अध्यात्मस्थान, अनुभागस्थान, योगस्थान, बंधस्थान, उदयस्थान, मार्गणास्थान, स्थितिबंधस्थान, संक्लेशस्थान, विशुद्धिस्थान, संयमलब्धिस्थान और गुणस्थानों के लेते हैं। वे जीवस्थान को वर्णादि के प्रतिनिधि और गुणस्थान को रागादि के प्रतिनिधि के रूप में ग्रहण करते हैं। इसप्रकार वे वर्णादि व रागादि में अथवा जीवस्थान और गुणस्थानों में मिलाकर पूर्वोक्त सभी २९ भावों को समाहित कर लेते हैं।

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