Book Title: Samaysara Anushilan Part 01
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 472
________________ समयसार अनुशीलन में भी उन्हें अचेतन कहा है। भेदज्ञानी भी उन्हें चैतन्य से भिन्नरूप अनुभव करते हैं; इसलिए भी वे अचेतन हैं, चेतन नहीं। प्रश्न – यदि वे चेतन नहीं हैं तो क्या हैं - पुद्गल या कुछ और ? उत्तर – वे पुद्गलकर्मपूर्वक होते हैं, इसलिए निश्चय से पुद्गल ही है; क्योंकि कारण जैसा ही कार्य होता है। 466 इसप्रकार यह सिद्ध हुआ कि पुद्गलकर्म के उदय के निमित्त से होनेवाले चैतन्य के विकार भी जीव नहीं, पुद्गल हैं ।" उक्त सम्पूर्ण कथन पर ध्यान देने से यह बात अत्यन्त स्पष्ट हो जाती है कि यहाँ पुण्य-पापरूप सभी शुभाशुभ भावों को आत्मा से भिन्न अचेतन कहा जा रहा है, जड़ कहा जा रहा है, पुद्गल कहा जा रहा है । अरे भाई ! इनसे धर्म कैसे हो सकता है ? जब विशुद्धिस्थान, संयमलब्धिस्थान भी जड़ हैं; तो फिर कौन-सा शुभभाव शेष रहा, जिसे धर्म कहा जाय ? चेतन का धर्म तो चेतन के आश्रय से होता है । जब ये चेतन ही नहीं, जीव ही नहीं; तो इनके आश्रय धर्म भी कैसे हो सकता है ? यहाँ एक प्रश्न उपस्थित हो सकता है कि आप एक ओर तो रागादिभावों को पुद्गल की रचना कहते हैं और दूसरी ओर जीव की विकारी पर्याय बताते हैं इससे भ्रम उत्पन्न होता है । - अरे भाई ! विभिन्न स्थानों पर विभिन्न अपेक्षाओं से कथन होता है । जबतक हम उन अपेक्षाओं को अच्छी तरह नहीं समझेंगे, तबतक भ्रमित ही होते रहेंगे । ― आध्यात्मिक सत्पुरुष श्रीकानजीस्वामी इन अपेक्षाओं को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं "यहाँ कहते हैं कि ये वर्णादि सभी भाव पुद्गल के ही हैं, इन्हें पुद्गल की ही रचना जानो! यह कथन किस अपेक्षा से किया है ?

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