Book Title: Samaysara Anushilan Part 01
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 474
________________ समयसार अनुशीलन 468 इस चैतन्यसूर्य का प्रकाश चैतन्यमय ही होता है, इसमें राग का अन्धकार कहाँ से हो? यह तो अचेतन-पुद्गल का ही कार्य है। प्रश्न – राग व द्वेष के परिणामों को पुद्गल का क्यों कहा? उत्तर -एक तो वे परिणाम निकल जाते हैं और दूसरे वे जीव के स्वभावमय नहीं हैं, इसलिए उन्हें पुद्गल का कहा है। एकसमय की पर्याय में जो रागादि व भेदादिभाव होते हैं; वे पुद्गल के ही कार्य हैं, क्योंकि वे चैतन्यस्वरूप वस्तु में नहीं हैं। वस्तु तो त्रिकाली शुद्ध चैतन्यघन सच्चिदानन्दस्वरूप भगवान है। वह विकार व भेद का कारण कैसे हो सकती है? इसकारण निमित्त के आधीन हुए राग व भेदादिभाव पुद्गल की ही रचना है - ऐसा जानो! ऐसा ही अनुभव करो।" __ अब यहाँ एक प्रश्न उपस्थित होता है कि जब ये भाव जीव नहीं हैं तो जीव क्या है, जीव कैसा है, जीव कौन है? – इसी प्रश्न के उत्तर में आगामी कलश लिखा गया है; जो इसप्रकार है - ( अनुष्टुभ् ) अनाद्यनंतमचलं स्वसंवेद्यमिदं स्फुटम्। जीवः स्वयं तु चैतन्यमुच्चैश्चकचकायते॥ ४१॥ (दोहा) स्वानुभूति में जो प्रगट, अचल अनादि अनन्त। स्वयं जीव चैतन्यमय, जगमगात अत्यन्त॥ जो अनादि है, अनन्त है, अचल है, स्वसंवेद्य है, प्रगट है, चैतन्यस्वरूप है और अत्यन्त प्रकाशमान है, वही जीव है। १. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी) भाग-२, पृष्ठ ३५८-३५९ २. वही, पृष्ठ ३६० ३. वही, पृष्ठ ३६०

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