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समयसार अनुशीलन
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उत्तर इसप्रकार है कि कहने में तो व्यवहार से ऐसा ही कहा जाता है, किन्तु निश्चय से ऐसा कहना झूठा है। ___ तथा कलशटीका में ही ४०वें कलश में भी यही दृढ़ किया है कि आगम में गुणस्थानों का स्वरूप कहा है, वहाँ देवजीव, मनुष्यजीव, रागीजीव, द्वेषजीव इत्यादि बहुत प्रकार से कहा है, सो यह सब ही कथन व्यवहारमात्र से है, द्रव्यस्वरूप देखने पर ऐसा कहना झूठा है।
प्रश्न -प्रवचनसार की गाथा १८९ में ऐसा आता है कि निश्चय से आत्मा शुभाशुभभावों का, पुण्य-पाप के भावों का कर्ता और भोक्ता है तथा प्रवचनसार गाथा ८ में ऐसा कहा है कि शुभ, अशुभ या शुद्धरूप से परिणत जीव उन्हीं से तन्मय है? इन कथनों का क्या अभिप्राय है?
उत्तर -भाई! वहाँ तो पर्याय शुभाशुभभावों से एकरूप है, मात्र इतना बताना है। इसलिए त्रिकाली द्रव्य शुभाशुभभावों में तन्मय नहीं हो गया है। प्रवचनसार के उस प्रकरण में वर्तमान पर्याय के बराबर ही वस्तु की स्थिति सिद्ध की है। यहाँ तो अकेले त्रिकाली द्रव्य की सिद्धि करना है। त्रिकाली आत्मद्रव्य तो शुद्ध विज्ञानघन भगवान ही है, वह कभी शुभाशुभभावरूप हुआ ही नहीं है । समयसार की ६वीं गाथा में भी आता है कि ज्ञायकस्वभावी भगवान आत्मा कभी भी शुभाशुभभावरूप नहीं हुआ है, तथापि 'शुभाशुभरूप हुआ है' - ऐसा कहना व्यवहार है।
यदि भगवान आत्मा शुभाशुभभाव के स्वभावरूप से परिणमित हो जाय तो वह जड़-अचेतन हो जाय । भाई! भक्ति व महाव्रतादि के जो शुभभाव हैं, वे जड-अचेतन हैं; क्योंकि इनमें चैतन्य की किरण नहीं है। वहाँ प्रवचनसार में पर्याय की अपेक्षा से आत्मा शुभाशुभभाव से तन्मय है - ऐसा कहा है, परन्तु यहाँ द्रव्य की अपेक्षा से कथन है। १. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी) भाग-२, पृष्ठ ३६२-३६३