________________
459
गाथा ६७
इसीप्रकार गुणस्थानों पर भी घटित करना चाहिए। जैसे - जो यह मिथ्यात्व गुणस्थानवाला जीव है, वह मिथ्यात्वगुणस्थानमय नहीं है, ज्ञानमय है।
इसप्रकार १४ भंग गुणस्थान के भी बन जावेंगे।
चौदह मार्गणाओं पर घटित करने पर और भी अधिक विस्तार हो जायेगा; क्योंकि जब गतिमार्गणा पर घटित करेंगे तो उसके भेदों पर भी घटित करना होगा। जैसे - जो देवजीव है, वह देवगतिमय नहीं है, ज्ञानमय है; यह मनुष्यजीव है, वह मनुष्यगतिमय नहीं है, ज्ञानमय है।
इसीप्रकार अन्य मार्गणाओं पर भी घटित होगा ।
इसीप्रकार २९ बोलों के सभी भेद-प्रभेदों पर घटित करके समझना चाहिए। उन भेद-प्रभेदों पर विशेषरूप से ध्यान देना चाहिए कि जिनमें हमारे सहज ही एकत्व के विकल्प चलते हैं।
यहाँ विशेष ध्यान देने की बात यह है कि इस गाथा की टीका में आचार्य अमृतचन्द्र ने व्यवहार को अप्रयोजनार्थ कहा है। जयचन्दजी छाबड़ा आदि लगभग सभी ने इसका अर्थ अप्रयोजनभूत ही किया है।
स्वामीजी ने इसपर विस्तार से प्रकाश डाला है, जो इसप्रकार है -
"घी के घड़े की भाँति व्यवहार से समझाया है, परन्तु यह व्यवहार अप्रयोजनभूत है। 'राग आत्मा है' - यह कहना अप्रयोजनभूत है, क्योंकि इससे कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। इसीप्रकार गुणस्थान, जीवस्थान, मार्गणास्थान आदि में आत्मा तन्मय नहीं है, इसलिए उसको जीव का कहना अप्रयोजनार्थ है, असत्यार्थ है; क्योंकि इससे कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। __कलशटीका में ३९वें कलश में कहा है कि 'कोई आशंका करता है कि कहने में तो ऐसा ही कहा जाता है - एकेन्द्रियजीव, द्वीन्द्रियजीव इत्यादि; देवजीव, मनुष्यजीव इत्यादि; रागीजीव, द्वेषीजीव इत्यादि।