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समयसार गाथा ६७
मूल बात तो यह है कि नामकर्म के उदय से होनेवाले वर्णादिभाव निश्चय से जीव नहीं; उन्हें जो जीव कहा जाता है, वह मात्र व्यवहारकथन ही है ।
इसी बात को अब इस ६७वीं गाथा में कह रहे हैं ।
पज्जत्तापज्जत्ता जे सुहुमा बादरा य जे चेव । देहस्स जीवसण्णा सुत्ते ववहारदो उत्ता ॥ ६७॥ ( हरिगीत )
पर्याप्तकेतर आदि एवं सूक्ष्म वादर आदि सब । जड़ देह की है जीव संज्ञा सूत्र में व्यवहार से ॥ ६७ ॥
शास्त्रों में देह के पर्याप्तक, अपर्याप्तक, सूक्ष्म, वादर आदि जितने भी नाम जीवरूप में दिये गये हैं; वे सभी व्यवहारनय से ही दिये गये हैं ।
यद्यपि यह भगवान आत्मा ज्ञान का घनपिण्ड और आनन्द का रसकंद है, ज्ञानानन्दस्वभावी है; तथापि शास्त्रों में भी इस आत्मा को पर्याप्तकजीव, अपर्याप्तकजीव, सूक्ष्मजीव, वादरजीव, एकेन्द्रियजीव, द्वीन्द्रियजीव, संज्ञीजीव, असंज्ञीजीव आदि नामों से अभिहित किया जाता है। शास्त्रों का यह कथन परमार्थकथन नहीं है, मात्र व्यवहारकथन ही है । इस कथन को परमार्थकथन के समान सत्यार्थ मानकर इन्हें सत्यार्थ जीव नहीं मान लिया जाय इस गाथा में इसी तथ्य की ओर ध्यान आकर्षित कर विशेष सावधान किया गया है ।
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आचार्य अमृतचन्द्र ने आत्मख्याति और कलश दोनों में ही घी के घड़े का उदाहरण देकर बात स्पष्ट की है; जो इसप्रकार है
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