Book Title: Samaysara Anushilan Part 01
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 462
________________ समयसार अनशीलन 456 "बादर, सूक्ष्म, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय, पर्याप्त, अपर्याप्त – इन शारीरिक संज्ञाओं को सूत्र में जो जीव संज्ञा के रूप में कहा गया है, वह पर की प्रसिद्धि के कारण घी के घड़े की भाँति व्यवहार है और वह अप्रयोजनार्थ है। जिसप्रकार किसी पुरुष के जन्म से ही मात्र घी का घड़ा ही प्रसिद्ध हो, उससे भिन्न अन्य घड़े को वह जानता ही न हो; ऐसे पुरुष को समझाने के लिए 'जो यह घी का घड़ा है, सो मिट्टीमय है, घीमय नहीं' - इसप्रकार घड़े में घी के घड़े का व्यवहार किया जाता है; क्योंकि उस पुरुष को घी का घड़ा ही प्रसिद्ध है। इसीप्रकार इस अज्ञानी लोक को अनादि संसार से एक अशुद्धजीव ही प्रसिद्ध है, वह शुद्ध जीव को जानता ही नहीं है; उसे समझाने के लिए 'जो यह वर्णादिमान जीव है, वह ज्ञानमय है, वर्णादिमय नहीं' - इसप्रकार जीव में वर्णादिमयपने का व्यवहार किया गया है; क्योंकि अज्ञानी लोक को वर्णादिमान जीव ही प्रसिद्ध है।" टीका में समागत कलश इसप्रकार है - ( अनुष्टभ् ) "घृतकुम्भाभिधानेऽपि कुम्भो घृतमयो न चेत्। जीवो वर्णादिमज्जीवजल्पनेऽपि न तन्मयः॥४०॥ ( दोहा ) कहने से घी का घड़ा, घड़ा न धीमय होय। कहने से वर्णादिमय जीवन तन्मय होय॥४०॥ जिसप्रकार 'घी का घड़ा' कहे जाने पर भी घड़ा घीमय नहीं हो जाता; उसीप्रकार वर्णादिमान जीव' कहे जाने पर भी जीव वर्णादिमय नहीं हो जाता। समयसार नाटक में इस कलश का भावानुवाद इसप्रकार किया गया है -

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