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कलश ३८.३९
( उपजाति ) निर्वय॑ते येन यदत्र किंचित् तदेव तत्स्यान्न कथंचनान्यत् । रुक्मेण निवृत्तमिहासिकोशं पश्यति रुक्मं न कथंचनासिम्॥ ३८॥ वर्णादिसामग्र्यमिदं विदंतु निर्माणमेकस्य हि पुद्गलस्य। ततोऽस्त्विदं पुद्गल एव नात्मा यतः स विज्ञानघनस्ततोऽन्यः॥३९ ।।
( दोहा ) जिस वस्तु से जो बने, वह हो वही न अन्य। स्वर्णम्यान तो स्वर्ण है, असि है उससे अन्य॥३८॥ वर्णादिक जो भाव हैं, वे सब पुद्गलजन्य।
एक शुद्ध विज्ञानघन आतम इनसे भिन्न ॥३९॥ जिस वस्तु से जो भाव बनता है, वह भाव वह वस्तु ही है; किसी भी प्रकार अन्य वस्तु नहीं है। क्योंकि स्वर्ण निर्मित म्यान को लोग स्वर्ण के रूप में ही देखते हैं, तलवार के रूप में नहीं। ____ अतः हे ज्ञानीजनो! इन वर्णादिक से लेकर गुणस्थान पर्यन्त भावों को एक पुद्गल की ही रचना जानो, पुद्गल ही जानो; ये भाव पुद्गल ही हों, आत्मा न हों; क्योंकि आत्मा तो विज्ञानघन है, ज्ञान का पुंज है; इसलिए इन भावों से भिन्न है। ___टीका और कलश में एक-सा भाव होने पर भी उदाहरण में थोड़ासा अन्तर है। टीका में स्वर्णपत्र लिया है जबकि कलश में स्वर्ण की म्यान ली है। इसीप्रकार टीका में सोने के लिए 'कनक' शब्द का उपयोग किया गया है और कलश में 'रुक्म' शब्द का प्रयोग है। ___ 'रुक्म' शब्द का अर्थ परमाध्यात्मतरंगिणी में आचार्य शुभचन्द्र ने, समयसार वचनिका में जयचन्दजी ने, सप्तदशांगीटीका में सहजानन्दजी वर्णी ने एवं अध्यात्म-अमृत कलश में पण्डित जगन्मोहनलालजी ने स्वर्ण ही किया है; किन्तु पाण्डे राजमलजी ने कलश टीका में रुक्म शब्द का अर्थ चाँदी किया है।