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समयसार अनुशीलन
अहो ! दिगम्बर सन्तों ने गजब वस्तुस्वरूप बताया है।" उक्त सम्पूर्ण कथन से यही स्पष्ट होता है कि जीव का वर्णादि २९ प्रकार के भावों के साथ न मोक्ष अवस्था में तादात्म्यसंबंध है और न संसारावस्था में । अत: ये सभी पुद्गलरूप भाव निश्चय से जीव से भिन्न ही हैं।
ध्यान रहे - यहाँ जिस जीव की बात चल रही है, वह जीव परमार्थ जीव है, दृष्टि का विषयभूत जीव है, ध्यान का ध्येय और परमशुद्धनिश्चयनयरूप ज्ञान का ज्ञेयरूप जीव है, परमपारिणामिकभावरूप जीव है।
इस जीव के आश्रय से ही सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र की प्राप्ति होती है। अपने इस जीव में अपनापन स्थापित करने का नाम ही सम्यग्दर्शन है, इसे निज जानने का नाम ही सम्यग्ज्ञान है और इसमें ही जमने-रमने का नाम सम्यक्चारित्र है। यही जिनागम का सर्वस्व है, परमागम का सर्वस्व है। ____ अरे भाई, अधिक क्या कहें? आत्मार्थी के लिए तो यही सब कुछ है; जो कुछ है, सो यही है। यही एकमात्र धर्म का आधार है । अतः इसे जानना ही जानना है और सब तो बस यों ही है, भार झोकना ही है।
अतः आत्मार्थियों को इसे जानने में ही जीवन लगा देना चाहिए, इसका अनुभव करने में ही सम्पूर्णत: समर्पित हो जाना चाहिए; व्यर्थ के विवादों से उपयोग को हटाकर इसमें समर्पित हो जाना ही उपयोग का सदुपयोग है, मानवजीवन की सार्थकता है।
यही कारण है आचार्यदेव यहाँ उसके स्वरूप को स्पष्ट करने के लिए पूरी शक्ति लगा रहे हैं, इतना विस्तार कर रहे हैं।
१. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी) भाग-२, पृष्ठ ३४०