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समयसार अनुशीलन
कोई आपत्ति नहीं है। यदि पर्याय, पर्याय की अपेक्षा से भी न हो तो संसार ही नहीं रहेगा और जब संसार की ही सिद्धि नहीं होगी तो संसारपूर्वक जो मोक्ष होता है, उसका भी अभाव सिद्ध होगा। इसप्रकार किसी भी पर्याय की सिद्धि नहीं होगी, वस्तु-व्यवस्था ही नहीं बनेगी ।
परमात्मप्रकाश के ४३ व ६८वें दोहे में आता है कि जीव के बन्धमोक्ष नहीं है तथा जीव के उत्पाद-व्यय नहीं है । वहाँ दोहा ४३ की टीका में लिखा है कि यद्यपि पर्यायार्थिकनय से उत्पाद - व्ययसहित है; तथापि द्रव्यार्थिकनय से उत्पाद - व्ययरहित है, सदा ध्रुव ही है । वही परमात्मा निर्विकल्पसमाधि के बल से तीर्थंकरदेवों ने देह में भी देख लिया है।
देखो ! व्यवहारनय से जीव उत्पाद - व्ययसहित है । वर्तमान पर्याय की दृष्टि से देखें तो उत्पाद - व्यय है, संसार है, उदयभाव है; परन्तु द्रव्यार्थिकनय से देखें तो वस्तु में उत्पाद - व्यय नहीं है। त्रिकालीध्रुव द्रव्यस्वभाव में उत्पाद - व्यय नहीं है, किन्तु वर्तमान पर्याय में भी कोई उत्पाद - व्यय का निषेध करने लगे तो यह ठीक नहीं है ।
दोहा ६८ की टीका में लिखा है कि ' यद्यपि यह आत्मा शुद्धात्मानुभूति के अभाव होने पर शुभ-अशुभ उपयोगरूप परिणमन करके शुभ-अशुभ कर्मबन्ध को करता है और शुद्धात्मानुभूति के प्रगट होने पर शुद्धोपयोग से परिमित होकर कर्मबन्ध का अभाव करके मोक्षदशा को प्रगट करता . है, तथापि शुद्धपारिणामिक परमभावग्राहक - शुद्धद्रव्यार्थिकनय से न बन्ध का कर्ता है और न मोक्ष का कर्ता है । '
तब शिष्य ने प्रश्न किया कि 'हे प्रभो ! शुद्धद्रव्यार्थिकस्वरूप शुद्धनिश्चयनय से मोक्ष का भी कर्ता नहीं है तो क्या इस कथन से ऐसा समझें कि शुद्धनय से मोक्ष ही नहीं है और जब मोक्ष ही नहीं है तो उसके लिये प्रयत्न करना भी निरर्थक ही है ?'