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समयसार गाथा
६१-६४
"वर्णादि भावों का जीव के साथ तादात्म्य संबंध न होने से वे निश्चय से जीव नहीं हैं' अबतक पूरा वजन देकर इस बात को कहते आ रहे हैं; अतः शिष्य का प्रश्न यह है कि वर्णादिभावों का जीव के साथ तादात्म्य संबंध क्यों नहीं है ?
शिष्य की इस आशंका का समाधान आगामी चार गाथाओं में अनेक युक्तियों से किया जा रहा है ।
तत्थ भवे जीवाणं संसारत्थाण होंति वण्णादी । संसारपमुक्काणं णत्थि हु वण्णादओ केई ॥ ६१ ॥ जीवो चेव हि दे सव्वे भाव त्ति मण्णसे जदि हि । जीवस्साजीवस्स य णत्थि विसेसो दु दे कोई ॥ ६२ ॥ अह संसारत्थाणं जीवाणं तुज्झ होंति वण्णादी । तम्हा संसारत्था जीवा रूवित्तमावण्णा ॥ ६३ ॥ एवं पोग्गलदव्वं जीवो तहलक्खणेण मूढमदी । णिव्वाणमुवगदो वि य जीवत्तं पोग्गलो पत्तो ॥ ६४ ॥ ( हरिगीत )
जो जीव हैं संसार में वर्णादि उनके ही कहे। जो मुक्त हैं संसार से वर्णादि उनके हैं नहीं ॥ ६१ ॥ वर्णादिमय ही जीव हैं तुम यदी मानो इसतरह । तब जीव और अजीव में अन्तर करोगे किसतरह ? ।। ६२ ।। मानो उन्हें वर्णादिमय जो जीव हैं संसार में । तब जीव संसारी सभी वर्णादिमय हो जायेंगे ॥ ६३॥ यदि लक्षणों की एकता से जीव हों पुद्गल सभी । बस इसतरह तो सिद्ध होंगे सिद्ध भी पुद्गलमयी ॥ ६४ ॥