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गाथा ५८ -६०
शिष्य का समाधान करते हुए आचार्य कहते हैं - 'मोक्ष बन्धपूर्वक होता है और बन्ध शुद्धनिश्चयनय से होता ही नहीं है, इसकारण बन्ध के अभावरूप मोक्ष भी शुद्धनिश्चयनय से नहीं है । यदि शुद्धनिश्चयनय से बन्ध हो तो सदैव बन्ध ही रहे, कभी बन्ध का अभाव नहीं हो।'
देखो, व्यवहारनय से - अशुद्धनय से पर्याय में बन्ध है और बन्ध के अभावपूर्वक मोक्ष का मार्ग तथा मोक्ष भी है, किन्तु यह सब व्यवहारनय से है; निश्चयनय से बन्ध या मोक्ष नहीं है तथा बन्ध व मोक्ष के कारण भी नहीं हैं।
अहा! जैनदर्शन बहुत सूक्ष्म है। पर्याय में बन्ध है तथा बन्ध के नाश का उपाय भी है; परन्तु वह सब व्यवहार है, मोक्षमार्ग की पर्याय भी व्यवहार है। व्यवहाररत्नत्रय के शुभभावरूप विकल्प को उपचार से व्यवहार-मोक्षमार्ग कहा जाता है, उस शुभभावरूप व्यवहाररत्नत्रय की यहाँ बात नहीं है, बल्कि निर्मल आनन्दस्वरूप भगवान आत्मा की परिणति में जो शुद्धरत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग की दशा होती है, वह भी पर्याय होने से व्यवहार ही है। ___ 'व्यवहार से बन्ध है तथा व्यवहार से ही मोक्ष व मोक्षमार्ग होता है'
- यही बात आगे दोहा ६८ की टीका में दृष्टान्त देकर समझाई है - ___ कोई एक पुरुष जेल में सांकल से बंधा है और कोई दूसरा पुरुष बन्धरहित है, कभी जेल गया ही नहीं; उनमें से जो पहले बंधा था, उसका मुक्त कहना तो उचित लगता है; किन्तु जो बंधा ही नहीं था, कभी जेल गया ही नहीं था, उससे कहा जाय कि आप जेल से कब छूट गये? तो ऐसा कहना क्या उचित है? क्या वह इस बात को सुनकर क्रोध नहीं करेगा कि मैं जेल गया ही कब, जो छूटने की पूछते हो? बन्धपूर्वक मोक्ष तो ठीक है, पर जब बन्ध ही नहीं, तो मोक्ष कहना कैसे ठीक होगा?