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समयसार अनुशीलन भी है; पर कोई नासमझ 'यह तो अरिहंत भगवान के वचन हैं ' - ऐसा मानकर जीव को परमार्थ से भी वर्णादिवाला मान ले तो हानि ही उठायेगा। व्यवहार की जो स्थिति है, जो उपयोगिता है, जो प्रयोजन है; उसे भलीभाँति समझकर आत्महित में उसका भी उपयोग करना चाहिए; उसे सर्वथा सत्यार्थ या सर्वथा असत्यार्थ मानकर दिग्भ्रमित नहीं होना चाहिए। __इसी बात को ध्यान में रखकर पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा भावार्थ में लिखते हैं -
"ये वर्ण से लेकर गुणस्थानपर्यंत भाव सिद्धान्त में जीव के कहे हैं - वे व्यवहारनय से कहे हैं, निश्चयनय से वे जीव के नहीं हैं; क्योंकि जीव तो परमार्थ से उपयोगस्वरूप है।
यहाँ ऐसा जानना कि पहले व्यवहारनय को असत्यार्थ कहा था, सो वहाँ ऐसा न समझना कि वह सर्वथा असत्यार्थ है; किन्तु कथंचित् असत्यार्थ जानना; क्योंकि जब एक द्रव्य को (परद्रव्य से) भिन्न, पर्यायों से अभेदरूप, उसके असाधारणगुण मात्र को प्रधान करके कहा जाता है; तब परस्पर द्रव्यों का निमित्त-नैमित्तिक भाव तथा निमित्त से होनेवाली पर्यायें - वे सब गौण हो जाते हैं । वे एक अभेदद्रव्य की दृष्टि में प्रतिभासित नहीं होते, इसलिये वे सब उस द्रव्य में नहीं हैं; इसप्रकार कथंचित् निषेध किया जाता है । यदि उन भावों को उस द्रव्य के कहा जाये तो वह व्यवहारनय से कहा जा सकता है - ऐसा नयविभाग है। ___ यहाँ शुद्धनय की दृष्टि से कथन है, इसलिये ऐसा सिद्ध किया है कि जो ये समस्त भाव सिद्धान्त में जीव के कहे गये हैं, सो व्यवहार से कहे गये हैं। यदि निमित्त-नैमित्तिक भाव की दृष्टि से देखा जाये तो वह व्यवहार कथंचित् सत्यार्थ भी कहा जा सकता है। यदि सर्वथा असत्यार्थ ही कहा जाये तो सर्व व्यवहार का लोप हो जायेगा । इसलिये