Book Title: Samaysara Anushilan Part 01
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 445
________________ 439 गाथा ५८.-६० अन्य द्रव्यों से अधिक होने से, भिन्न होने से इन भावों में से कोई भी निश्चय से जीव का नहीं है ; क्योंकि इनका जीव के साथ तादात्म्य संबंध नहीं है।" देखो, गाथा में तो ऐसा कहा था कि निश्चयनय के जानकार ऐसा कहते हैं; पर आचार्य अमृतचन्द्र आत्मख्याति में लिखते हैं कि अरिहंत भगवान ऐसा कहते हैं। अरे भाई ! यह अरिहंत भगवान की कही हुई बात है। अरिहंत भगवान भी इन २९ प्रकार के भावों को व्यवहार से आत्मा के बताते हैं, परन्तु साथ में यह भी कहते हैं कि ये निश्चयनय से आत्मा में नहीं हैं। निश्चय और व्यवहार – दोनों नयों की बात अरिहंतभगवान की वाणी में आई है, उनकी वाणी भी स्याद्वादमयी है न। अत: उसमें भी दोनों नयों की बात आती है। इसलिए दोनों नयों के कथन का भाव समझकर, उनके प्रयोजन को जानकर अपने हित में लगना चाहिए। देखो, आचार्यदेव ने कितना अच्छा उदाहरण देकर बात स्पष्ट की है। आचार्यदेव कहते हैं कि मार्ग थोड़े ही लुटता है, लुटता तो संघ है; पर संघ को लुटता देखकर व्यवहार से कह दिया जाता है कि मार्ग लुटता है। मार्ग लुटता है - ऐसा कहने पर भी राहगीर यही समझते हैं कि राह (मार्ग) नहीं, राहगीर (पथिक) ही लुटते हैं और फिर वे उस राह (मार्ग) से नहीं जाते । इसप्रकार व्यवहार कथन से भी उनका प्रयोजन सिद्ध हो जाता है, वे लुटने से बच जाते हैं । इसप्रकार व्यवहार भी अपने प्रयोजन को सिद्ध करनेवाला है । पर व्यवहार के इस कथन को सुनकर कोई उसे ही परमार्थ मान ले और यही समझले कि लुटता तो मार्ग है, हमें क्या डर है। - ऐसा विचार कर निशंकभाव से उस मार्ग में विचरण करे तो लुटेगा ही। इसीप्रकार विशेष प्रयोजन की सिद्धि के लिए व्यवहार से वर्णादि को जीव कहा है और वह अपने प्रयोजन की सिद्धि करने में पूर्ण सफल

Loading...

Page Navigation
1 ... 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502