________________ 409 गाथा 49 उनरूप परिणमित नहीं होता। इसकारण वह अरस, अरूप, अगंध और अस्पर्श है। इसप्रकार इन छह अर्थों में आरम्भ के दो अर्थ पुद्गलद्रव्य और उसके रस, रूप, गंध और स्पर्श गुणों से आत्मा के भिन्न होने रूप हैं: बीच के दो अर्थ रस, रूप, गंध और स्पर्श को द्रव्येन्द्रियों और भावेन्द्रियों के माध्यम से नहीं जानने संबंधी है और अन्त के दो अर्थ जाननेरूप तो हैं, पर उनमें से पहला अकेले को न जानकर सभी को जाननेरूप है और दूसरा जाननेरूप परिणमित होने पर भी उनरूप परिणमित नहीं होनेरूप है। निष्कर्ष में कहा जा सकता है कि इन छह अर्थों में आत्मा का पुद्गल के रसादि गुणों के साथ सभी प्रकार के संबंधों का बड़ी ही निर्दयता से निषेध कर दिया गया है; मात्र एक ज्ञेय-ज्ञायक संबंध को स्वीकार किया गया है, वह भी इस शर्त के साथ कि वह किसी एक के साथ ही ज्ञेय-ज्ञायक रूप से संबंधित नहीं है, अपितु समानरूप से सभी को जानता है; जानता तो है, जाननेरूप परिणमित तो होता है; पर रसादिरूप परिणमित कभी भी नहीं होता। प्रश्न - अरस, अरूप, अगंध और अस्पर्श का सीधा-सच्चा अर्थ यह है कि आत्मा में खट्टा, मीठा, चरपरा, कषायला और कड़वा - ये पाँच रस नहीं हैं, अत: अरस है; काला, पीला, हरा, लाल और सफेद - ये पाँच रंग नहीं हैं, अत: अरूप है; सुगंध और दुर्गन्ध - ये दो गंध नहीं हैं, अत: अगंध है और रूखा, चिकना, कड़ा, नर्म, ठंढा, गर्म, हल्का और भारी - से आठ स्पर्श नहीं हैं, अत: अस्पर्श है। यहाँ यह अर्थ तो नहीं किया और न मालूम कहाँ-कहाँ से कैसेकैसे अर्थ निकाले हैं ? मान लो कि जो अर्थ निकाले हैं, वे भी ठीक हैं; पर साथ में यह अर्थ भी तो करना चाहिए था?