________________ 417 गाथा 49 उत्तर -अरे, भाई ! पारिणामिकभाव पर्यायरूप नहीं है, द्रव्यरूप है; अत: वह सदा त्रिकाली ही होता है। भूत- भविष्य की पर्यायें पारिणामिकभावरूप हो गईं का अर्थ ही यह है कि वे द्रव्यरूप हो गईं। पर्यायें द्रव्य में से ही प्रगट होती हैं और द्रव्य में ही समा जाती हैं / अत: दृष्टि का विषय तो द्रव्य ही रहा। इसी कारण इस दृष्टि को द्रव्यदृष्टि भी कहते हैं। प्रश्न -आप कुछ भी कहो, परन्तु जब वर्तमान पर्याय अलग रह गई तो फिर द्रव्य त्रिकाली कैसे रहा? अखण्डित कैसे रहा? - यह समझ में नहीं आता। उत्तर -हम कुछ भी क्यों कहें? हम तो वही कहेंगे, जो वस्तु का स्वरूप है, आगमानुकूल है, तर्क की कसौटी पर खरा उतरता है। वर्तमान के दो रूप हैं - एक व्यक्त पर्यायरूप और दूसरा त्रिकाली का वह अव्यक्तरूप, जो भूत-भविष्य के बीच की कड़ी है एवं भूत और भविष्य को अखण्ड रखता है; भूत, वर्तमान और भविष्य - तीनों कालों में अखण्ड रहता है और जिसे काल की अखण्ता कहा जाता है, नित्यता कहा जाता है। यह तो आप जानते ही हैं कि 'है' क्रिया का प्रयोग वर्तमान के अर्थ में भी होता है और त्रिकाल के अर्थ में भी होता है। जैसे - 'आत्मा नित्य है' - इस वाक्य में 'है' क्रिया का प्रयोग त्रिकाली के अर्थ में हुआ है। यह बात सातवीं गाथा के अनुशीलन में विस्तार से समझाई जा चुकी है / आप उसका एक बार गहराई से अध्ययन करें तो सब समझ में आ जायगा। __ अरे भाई! आप एक ओर भूत-भविष्य की पर्यायों को द्रव्य में पारिणामिकभावरूप से अन्तर्मग्न मान रहे हैं और दूसरी ओर उन्हें काल से खण्डित भी कर रहे हैं। आप यह क्यों भूल जाते हैं कि पारिणामिकभाव द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव सभी ओर से अखण्डित ही