________________ समयसार अनुशीलन 424 योग के स्थान नहिं अर बंध के स्थान ना। उदय के स्थान नहिं अर मार्गणास्थान ना॥५३ / / थिति बंध के स्थान नहिं संक्लेश के स्थान ना। संयमलब्धि के स्थान ना सुविशुद्धि के स्थान ना // 54 // जीव के स्थान नहिं गुणथान के स्थान ना। क्योंकि ये सब भाव पुद्गल द्रव्य के परिणाम हैं / / 55 // जीव के वर्ण नहीं है, गंध भी नहीं है, रस और स्पर्श भी नहीं है; रूप भी नहीं है, शरीर भी नहीं है, संस्थान और संहनन भी नहीं है। जीव के राग नहीं है, द्वेष नहीं है और मोह भी विद्यमान नहीं है; प्रत्यय नहीं है, कर्म भी नहीं है और नोकर्म भी नहीं है। जीव के वर्ग नहीं है, वर्गणा नहीं है और कोई स्पर्धक भी नहीं है; अध्यात्मस्थान और अनुभागस्थान भी नहीं है। जीव के कोई योगस्थान नहीं है, बंधस्थान नहीं है, उदयस्थान नहीं है और कोई मार्गणास्थान भी नहीं है। जीव के स्थितिबंधस्थान नहीं है, संक्लेशस्थान भी नहीं है, विशुद्धिस्थान भी नहीं है और संयमलब्धिस्थान भी नहीं है। जीव के जीवस्थान नहीं है और गुणस्थान भी नहीं है; क्योंकि ये सभी पुद्गलद्रव्य के परिणाम हैं। उक्त गाथाओं की टीका लिखते हुए आचार्य अमृतचन्द्र आत्मख्याति में उक्त 29 प्रकारों के भावों के भेद-प्रभेद गिनाते हुए भगवान आत्मा में उनके होने का निषेध करते हैं / जहाँ आवश्यकता समझते हैं ; वहाँ उनका स्वरूप भी संक्षेप में स्पष्ट करते जाते हैं। सभी भावों के निषेध में वे एक ही तर्क देते हैं, एक ही युक्ति प्रस्तुत करते हैं कि ये पुद्गलद्रव्य के परिणाममय होने से अपनी अनुभूति से भिन्न हैं, अनुभूतिस्वरूप भगवान आत्मा से भित्र हैं।