________________ 427 गाथा 50-55 जीव नहीं हैं ; क्योंकि वे भी पुद्गल के परिणाममय होने से अपनी अनुभूति से भिन्न हैं। (19) भिन्न-भिन्न प्रकृतियों के रस के परिणाम हैं लक्षण जिनके, वे अनुभागस्थान भी जीव नहीं हैं; क्योंकि वे भी पुद्गलद्रव्य के परिणाममय होने से अपनी अनुभूति से भिन्न हैं। __(20) काय, वचन और मनोवर्गणा के कम्पनरूप योगस्थान भी जीव नहीं हैं; क्योंकि वे पुद्गलद्रव्य के परिणाममय होने से अपनी अनुभूति से भिन्न हैं। (21) भिन्न-भिन्न प्रकृतियों के परिणाम लक्षणवाले बंधस्थान भी जीव नहीं हैं; क्योंकि वे भी पुद्गलद्रव्य के परिणाममय होने से अपनी अनुभूति से भिन्न हैं। (22) अपने फल को उत्पन्न करने में समर्थ कर्म-अवस्थारूप उदयस्थान भी जीव नहीं हैं; क्योंकि वे भी पुद्गलद्रव्य के परिणाममय होने से अपनी अनुभूति से भिन्न हैं। (23) गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व, सम्यक्त्व, संज्ञा और आहार - ये चौदह मार्गणास्थान भी जीव नहीं है; क्योंकि वे पुद्गलद्रव्य के परिणाममय होने से अपनी अनुभूति से भिन्न हैं। (24) भिन्न-भिन्न प्रकृतियों का सुनिश्चित काल तक साथ रहना है लक्षण जिनका - ऐसे स्थितिबंधस्थान भी जीव नहीं हैं; क्योंकि वे पुद्गलद्रव्य के परिणाममय होने से अपनी अनुभूति से भिन्न हैं। ____ (25) कषायों के विपाक का उद्रेक है लक्षण जिनका - ऐसे संक्लेशस्थान भी जीव नहीं हैं; क्योंकि वे भी पुद्गलद्रव्य के परिणाममय होने से अपनी अनुभूति से भिन्न हैं। (26) कषायों के विपाक के अनुद्रेक लक्षणवाले विशुद्धिस्थान भी जीव नहीं हैं; क्योंकि वे पुद्गलद्रव्य के परिणाममय होने से अपनी अनुभूति से भिन्न हैं।