________________ 433 गाथा 56-57 का तादात्म्यरूप संबंध है, वर्णादिक के साथ आत्मा का उसप्रकार का संबंध नहीं है। इसलिए वर्णादिरूप पुद्गल के परिणाम निश्चय से आत्मा के नहीं हैं।" आत्मख्याति के उक्त कथन में व्यवहारनय को पर्यायाश्रित और निश्चयनय को द्रव्याश्रित बताया गया है और साथ में यह भी कहा गया है कि पर्यायाश्रित होने से व्यवहारनय एक द्रव्य के भाव को दूसरे द्रव्य का कहता है तथा निश्चयनय एक द्रव्य के भाव को दूसरे का नहीं कहता, अपितु एक द्रव्य के भाव को दूसरे द्रव्य का कहने का निषेध करता है, वह तो केवल स्वाभाविक भावों का आलम्बन लेकर ही प्रवर्तित होता है। उक्त नियम के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला गया है कि वर्ण से लेकर गुणस्थानपर्यन्त के सभी भाव व्यवहार से जीव के हैं और निश्चय से जीव के नहीं। अब प्रश्न यह शेष रह जाता है कि वर्णादिभाव निश्चय से जीव के क्यों नहीं हैं? इसके समाधान के लिए दूध और पानी तथा अग्नि और उष्णता का उदाहरण देकर यह स्पष्ट किया है कि जिसप्रकार दूध और जल का एकक्षेत्रावगाहरूप संयोग संबंध है, उसीप्रकार का आत्मा का वर्णादि के साथ एकक्षेत्रावगाहरूप संयोग संबंध तो है और इसीकारण उन्हें व्यवहार से जीव का कहा जाता है; किन्तु जीव और वर्णादि का अग्नि और उष्णता के समान तादात्म्यसंबंध नहीं है; अत: उन्हें निश्चयनय से जीव का नहीं कहा जा सकता; क्योंकि जीव का तादात्म्य संबंध तो अपने ज्ञान-दर्शनरूप उपयोग गुण से है। इसलिए जीव अपने उपयोग गुण के कारण वर्णादिभावों से भिन्न ही भासित होता है और यही परमार्थ है।