________________ समयसार अनुशीलन 436 पुण्य-- पाप, गुणस्थान आदि भाव एक अवगाहना में व्याप्त होते हुए भी स्वलक्षणभूत उपयोग गुण से देखने पर अर्थात् परिणति के अन्तरंग में ढलने पर वे आत्मा से भिन्न ज्ञात होते हैं / इसकारण ये सभी अन्यभाव पर्याय में होते हुए भी द्रव्य में नहीं हैं - ऐसा कहते हैं। इसप्रकार आत्मा सर्व द्रव्यों और सर्व भावों से अधिकपनेभिन्नरूप से प्रतीत होता है। इसप्रकार इन दो गाथाओं में यही स्पष्ट किया गया है कि ये 29 प्रकार के भाव व्यवहार से जीव के हैं और निश्चय से जीव के नहीं। . 1. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी) भाग-२, पृष्ठ 305 विश्वविख्यात समस्त दर्शनों में जैनदर्शन ही एक ऐसा दर्शन है, जो निज भगवान आत्मा की आराधना को धर्म कहता है; स्वयं के दर्शन को सम्यग्दर्शन, स्वयं के ज्ञान को सम्यग्ज्ञान और स्वयं के ध्यान को सम्यक् चारित्र कहकर इन सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र को ही वास्तविक धर्म घोषित करता है। ईश्वर की गुलामी से भी मुक्त करनेवाला अनन्त स्वतंत्रता का उद्घोषक यह दर्शन प्रत्येक आत्मा को सर्वप्रभुतासम्पन्न परमात्मा घोषित करता है और उस परमात्मा को प्राप्त करने का उपाय भी स्वावलम्बन को ही बताता है। __यद्यपि प्रत्येक आत्मा स्वभाव से स्वयं परमात्मा ही है; तथापि वह अपने परमात्मस्वभाव को भूलकर स्वयं पामर बन रहा है। पर्यायगत पामरता को समाप्त कर स्वभावगत प्रभुता को पर्याय में प्रगट करने का एकमात्र उपाय पर्याय में स्वभावगत प्रभुता की स्वीकृति ही है, अनुभूति ही है। - बारहभावना : एक अनुशीलन, पृ. 173