________________ समयसार गाथा 50 से 55 जीव तो चैतन्यशक्तिमात्र ही है, चित् शक्ति ही जीव का सर्वस्व है, सबकुछ है। चित् शक्ति के अतिरिक्त जो भी भाव हैं; वे सभी पौद्गलिक हैं, पुद्गलद्रव्य के परिणाम हैं - यह भाव है ३६वें कलश का और यही भाव आगामी गाथाओं में भी व्यक्त किया गया है। वे गाथाएं मूलत: इसप्रकार हैं - जीवस्स णत्थि वण्णो ण वि गंधो ण वि रसो ण वि य फासो। ण वि रूवं ण सरीरं ण वि संठाणं ण संहणणं // 50 // जीवस्स णत्थि रागो ण वि दोसो व विजदे मोहो। णो पच्चया ण कम्मं णोकम्मं चावि से णत्थि / / 51 / / जीवस्स णत्थि वग्गो ण वग्गणा णेव फड्ढया केई। णो अज्झप्पट्ठाणा व य अणुभागठाणाणि / / 52 / / जीवस्स पत्थि के ई जोयट्ठाणा ण बंधठाणा वा। णेव य उदयट्ठाणा ण मग्गणट्ठाणया केई॥५३॥ णो ठिदिबंधट्ठाणा जीवस्स ण संकिलेसठाणा वा। णेव विसोहिट्ठाणा णो संजमलद्धिठाणा वा॥५४॥ णेव य जीवट्ठाणा ण गुणट्ठाणा य अस्थि जीवस्स। जेण दु एदे सव्वे पोग्गलदव्वस्स परिणामा // 55 // ( हरिगीत ) शुध जीव के रस गंध ना अर वर्ण ना स्पर्श ना। यह देह ना जड़रूप ना संस्थान ना संहनन ना / / 50 // ना राग है ना द्वेष है ना मोह है इस जीव के। प्रत्यय नहीं है कर्म ना नोकर्म ना इस जीव के // 51 // ना वर्ग है ना वर्गणा अर कोई स्पर्धक नहीं। अर नहीं हैं अनुभाग के अध्यात्म के स्थान भी॥५२॥