________________ 421 कलश 35 ( मालिनी ) सकलमपि विहायालाय चिच्छक्तिरिक्तं स्फुटतरमवगाह्य स्वं च चिच्छक्तिमात्रम् / इममुपरि चरंतं चारु विश्वस्य साक्षात् कलयतु परमात्मात्मानमात्मन्यनंतम् // 35 // ( हरिगीत ) चैतन्यशक्ति से रहित परभाव सब परिहार कर। चैतन्यशक्ति से सहित निजभाव नित अवगाह कर॥ है श्रेष्ठतम जो विश्व में सुन्दर सहज शुद्धातमा। अब उसी का अनुभव करो तुम स्वयं हे भव्यातमा॥ 35 // हे भव्यात्माओ! चैतन्यशक्ति से रहित अन्य समस्त भावों को छोड़कर और अपने चैतन्यशक्तिमात्र भाव को प्रगटरूप से अवगाहन करके लोक के समस्त सुन्दरतम पदार्थों के ऊपर तैरनेवाले अर्थात् पर से पृथक् एवं सर्वश्रेष्ठ इस एकमात्र अविनाशी आत्मा को अपने आत्मा में ही देखो, अपने-आप में ही साक्षात्कार करो, साक्षात् अनुभव करो। ४९वीं गाथा में आत्मा के अरसादि विशेषणों में अन्तिम विशेषण के रूप में चेतनागुण विशेषण आया है और उसे समस्त विवादों को नाश करनेवाला बताया गया है। वह चेतनागुण भगवान आत्मा का असाधारण स्वभाव होने से आत्मा की पहिचान का चिन्ह है, लक्षण है। इसीकारण वह समस्त विवादों का नाश करनेवाला भी है। उसके साथ अविनाभावीरूप से रहनेवाले अनन्तगुण भी अभेदरूप से उसमें समाहित हैं। उसे यहाँ चित्शक्तिमात्र नाम से कहा गया है, उसे ज्ञानमात्र नाम से भी कहा जाता है। ___ वर्णादि से लेकर गुणस्थानपर्यन्त जितने भी भाव हैं, जिन्हें आगामी गाथाओं में स्पष्टरूप से पौद्गलिक घोषित करनेवाले हैं; वे सभी भाव उस चित्शक्तिमात्र आत्मा से भिन्न हैं / उन सभी भावों से अपने उपयोग