________________ 419 गाथा 49 को जानने की बात होने पर भी पाँचवें अर्थ में तो यह बताया गया है कि वह अकेली व्यक्तता को नहीं जानता; दोनों को ही मिश्रितरूप से जानता है; अत: अव्यक्त है और छठवें अर्थ में यह बताया गया है कि जानते हुए भी वह व्यक्तता के प्रति उदासीन रहता है; अत: अव्यक्त है। आचार्य जयसेन अव्यक्त का अर्थ मनोगत काम-क्रोधादि विकल्पों से रहित होने से अव्यक्त है, सूक्ष्म है - ऐसा करते हैं। ___ अब अलिंगग्रहण विशेषण का अर्थ करते हैं। प्रवचनसार में तो अलिंगग्रहण के बीस अर्थ किए हैं; पर यहाँ तो मात्र यही कहा है कि वह स्वसंवेदन ज्ञान के बल से प्रत्यक्षानुभूति का विषय बनता है; अतः उसे अकेले अनुमान का विषय नहीं माना जा सकता है; अतः अलिंगग्रहण है। ___ आत्मा अनुभव में प्रत्यक्ष ज्ञात होता है - इस बात को स्पष्ट करते हुए स्वामीजी कहते हैं - ___ "आनन्द के वेदन की अपेक्षा से यहाँ प्रत्यक्ष कहा है। अतीन्द्रिय आनन्द को आत्मा सीधे वेदन करता है; अत: उसके जोर में प्रत्यक्ष कहा गया है। आत्मा के आनन्द के स्वाद में श्रुतज्ञानी और केवलज्ञानी में अन्तर नहीं है / आत्मा के गुण और उसके आकार, केवलज्ञानी को जिसप्रकार प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं, उसप्रकार श्रुतज्ञानी के प्रत्यक्ष नहीं होते; परन्तु स्वानुभूति में आनन्द का वेदन तो श्रुतज्ञानी को भी प्रत्यक्ष ही है। जिसप्रकार अन्धा पुरुष शक्कर खावे या देखनेवाला पुरुष शक्कर खावे; तो इससे उसके मिठास के वेदन में कोई अन्तर नहीं है। अंधा पुरुष शक्कर को प्रत्यक्ष नहीं देखता, परन्तु उसे शक्कर की मिठास के स्वाद में कोई कमी नहीं है; उसीप्रकार आत्मा के आनन्द के वेदन में तो श्रुतज्ञानी और केवलज्ञानी में कोई अन्तर नहीं है।" 1. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी) भाग-२, पृष्ठ 239 2. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी) भाग-२, पृष्ठ 240