________________ समयसार अनुशीलन 418 होता है और यहाँ भी वह अखण्डित ही है। यही कारण है कि यहाँ चित्सामान्य में चैतन्य की समस्त व्यक्तियाँ निमग्न होने से जीव को अव्यक्त कहा गया है। __चौथे अर्थ में कहा गया है कि भगवान आत्मा क्षणिक व्यक्तिमात्र नहीं है; अत: अव्यक्त है / इसका भाव स्पष्ट करते हुए स्वामीजी कहते हैं - "तीसरे बोल में सर्व व्यक्तियों की सामान्य बात कही थी, परन्तु यहाँ चौथे बोल में क्षणिकव्यक्ति अर्थात् एक समय की मात्र वर्तमान पर्याय की बात की गई है। आत्मा क्षणिक व्यक्तिमात्र नहीं है; अत: अव्यक्त है। एक समय की पर्याय व्यक्त है, वह क्षणिक है। जब आत्मा शुद्ध चैतन्य सामान्य त्रिकाल है तो क्षणिक व्यक्तिमात्र प्रगट पर्याय के बराबर कैसे हो सकता है ? ...... इस बोल का तात्पर्य यह है कि पर्याय एक समय मात्र का सत् होने से दृष्टि करने योग्य और आश्रय करने योग्य नहीं है। अत: अनंतकाल में जिसका आश्रय नहीं किया है - ऐसे एक शुद्ध त्रिकाली अव्यक्त आत्मस्वभाव का आश्रय करना योग्य है।" इस चौथे अर्थ से भी उस आशंका का निराकरण होता है कि जो तीसरे अर्थ के समझने से हो सकती है। चित्सामान्य में चैतन्य की समस्त व्यक्तियों के अन्तर्गभित होने से यह आशंका उत्पन्न होती है कि जव सभी व्यक्तियाँ त्रिकालीध्रुवरूप ज्ञेय में ही शामिल हो गईं तो अब उसे जानने का कार्य कौन करेगा? - इस चौथे अर्थ में क्षणिक व्यक्ति को अलग रखकर अव्यक्त को जानने की समस्या का समाधान कर दिया गया है। अरसादि विशेषणों के समान अव्यक्त विशेषण का भी पाँचवाँछठवाँ अर्थ जानने सम्बन्धी है / इनमें व्यक्तता और अव्यक्तता - दोनों 1. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी) भाग-२, पृष्ट 235 ------ -- - ------