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समयसार अनुशीलन
408 इसीप्रकार छठवें अर्थ में यह कहा गया है कि यद्यपि आत्मा को समस्त ज्ञेयों का ज्ञान होता है; तथापि ज्ञेय-ज्ञायक के तादात्म्य का निषेध होने से रस के ज्ञानरूप परिणमित होने पर भी स्वयं रसरूप परिणमित नहीं होता, रूप के ज्ञानरूप परिणमित होने पर भी स्वयं रूपरूप परिणमित नहीं होता, गंध के ज्ञानरूप परिणमित होने पर भी स्वयं गंधरूप परिणमित नहीं होता और स्पर्श के ज्ञानरूप परिणमितं होने पर भी स्वयं स्पर्शरूप परिणमित नहीं होता; अत: अरस है, अरूप है, अगंध है और अस्पर्श है।
छठवें अर्थ को स्वामीजी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
"देखो, सम्पूर्ण विश्व ज्ञेय है और भगवान आत्मा ज्ञायक है। सभी ज्ञेयों को जानने की भगवान आत्मा की सामर्थ्य है। इसलिए ज्ञेय-ज्ञायक संबंध का व्यवहार होने पर भी ज्ञेय-ज्ञायक के तादात्म्य अर्थात् एकत्व का निषेध तो है ही। ज्ञेय को जानते हुए भी ज्ञायक ज्ञेयरूप नहीं होता। रस तो ज्ञेय है और आत्मा उसे जाननेवाला ज्ञायक है। रसरूप ज्ञेय को जानते हुए भी आत्मा का ज्ञान ज्ञेयरूप या रसरूप नहीं होता। ज्ञान ज्ञानरूप रहता है और रस रसरूप रहता है। रस का ज्ञान ज्ञान का ही परिणमन है; वह ज्ञान के ही कारण है, रस के कारण नहीं।" ___ पाँचवाँ और छठवाँ - ये दोनों अर्थ रस, रूप आदि को जानने संबंधी हैं। पाँचवें अर्थ में यह कहा गया है कि अकेले रस को नहीं जानता, अपितु सभी को जानता है, अत: अरस है; अकेले रूप को नहीं जानता, अपितु सभी को जानता है, अत: अरूप है; अकेली गंध को नहीं जानता, अपितु सभी को जानता है, अत: अगंध है और अकेले स्पर्श को नहीं जानता, अपितु सभी को जानता है, अत: अस्पर्श है।
छठवें अर्थ में कहा गया है कि भगवान आत्मा रस, रूप, गंध और स्पर्श को जानता तो है, उनके ज्ञानरूप तो परिणमित होता है; परन्तु १. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी) भाग-२, पृष्ठ २२६