Book Title: Samaysara Anushilan Part 01
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 412
________________ समयसार अनुशीलन 406 यह तो पहले स्पष्ट किया ही जा चुका है कि एकत्वबुद्धि को अहंबुद्धि और स्वामित्वबुद्धि को ममत्वबुद्धि भी कहते हैं तथा पूर्वरंग और जीवाजीवाधिकार का मुख्य प्रयोजन पुद्गलमय शरीरादि परपदार्थों से एकत्व और ममत्' जुड़ाना रहा है; क्योंकि पर का कर्तृत्व और भोक्तृत्व तो आगे चलकर कर्ताकर्म-अधिकार में छुड़ायेंगे। उक्त तीन अर्थों में मुख्यरूप से पाँच द्रव्येन्द्रियरूप शरीर से अथवा पुद्गल के द्रव्य, गुण व पर्याय से एकत्व-ममत्व छुड़ाया गया है। ___ अब चौथे अर्थ में भगवान आत्मा को क्षयोपशमभावरूप भावेन्द्रिय से भी भिन्न बताना चाहते हैं । अत: कहते हैं कि स्वभावदृष्टि से देखा जाय तो भगवान आत्मा क्षायोपशमिकभावरूप भी नहीं है ; इसलिए वह भावेन्द्रिय के माध्यम से भी रस को नहीं चखता, रूप को नहीं देखता, गंध को नहीं सूंघता और स्पर्श को नहीं छूता; अत: अरस है, अरूप है, अगंध है और अस्पर्श है। इस चौथे अर्थ में क्षयोपशमभावरूप भावेन्द्रियों से भी एकत्वममत्व छुड़ाना चाहते हैं; क्योंकि इनके भी कर्तृत्व और भोक्तृत्व को कर्ताकर्म-अधिकार में ही छुड़ायेंगे। यह चौथा अर्थ तीन अर्थों से अधिक सूक्ष्म है; क्योंकि इसमें अपनी ही विकारी पर्यायों को रसादिरूप कहकर उनसे भिन्नता बताई गई है। इस अर्थ के सम्बन्ध में स्वामीजी कहते हैं - "यह चतुर्थ बोल तीसरे बोल से अधिक सूक्ष्म है। अपने स्वभाव की दृष्टि से अर्थात् त्रिकाली शुद्ध ज्ञायकभाव की दृष्टि से देखें तो आत्मा में क्षयोपशमभाव का भी अभाव है। __ रस को जानने का वर्तमान ज्ञान का विकास, रस को जानने की वर्तमान ज्ञानशक्ति, रस को जानने में अटकनेवाला ज्ञान, एक रस में १. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी) भाग-२, पृष्ठ २२५

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