________________ 413 गाथा 49 इसके सन्दर्भ में स्वामीजी का स्पष्टीकरण इसप्रकार है - "भगवान आत्मा नित्य असंख्यातप्रदेशी है - ऐसा उसका नियतस्वभाव है। शरीर के भिन्न-भिन्न आकार अर्थात् एकेन्द्रिय, दोइन्द्रिय, तीन-इन्द्रिय, चार-इन्द्रिय, पाँच-इन्द्रिय आदि के आकार अनियत हैं। ऐसे अनियत-आकारोंवाले अनन्त शरीरों में आत्मा रहता है; इसलिए यह नियतसंस्थानवाला नहीं कहा जा सकता, अत: अनिर्दिष्टसंस्थान है।" तीसरे अर्थ में यह बताया गया है कि संस्थान नामक नामकर्म का विपाक (फल) तो पुद्गलों में ही होता है, शरीर में ही होता है। अत: उसके कारण भी आत्मा को किसी आकारवाला नहीं कहा जा सकता; अत: आत्मा अनिर्दिष्टसंस्थान है। चौथे अर्थ में यह स्पष्ट किया गया है कि लोक में विभिन्न आकारोंवाली अनेकानेक वस्तुएं हैं / यद्यपि यह भगवान आत्मा उन्हें जानता है; पर उनसे इसका कोई मिलाप नहीं है; अतः यह अनिर्दिष्टसंस्थान है। इसके बारे में स्वामीजी कहते हैं - "दाल-भात-रोटी, शरीर, मकान आदि अनेक आकारवाली वस्तुओं को जानते हुए भी आत्मा उनके आकाररूप नहीं होता, उनके आकाररूप नहीं परिणमता है। पर के आकाररूप नहीं परिणमित होने से ही आत्मा संस्थानरहित है अर्थात् अनिर्दिष्टसंस्थान है।" उक्त चार अपेक्षाओं से भगवान आत्मा को अनिर्दिष्टसंस्थान कहा गया है। 1. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी) भाग-२, पृष्ठ 230 2. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी) भाग-२, पृष्ठ 230