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गाथा ४९
आत्मख्याति टीका में अरस आदि पाँच विशेषणों के छह-छह अर्थ किये गये हैं; जो लगभग सभी के एक से ही हैं । अरस, अरूप, अगंध
और अस्पर्श के अर्थ तो एकदम एक से ही हैं, अशब्द में थोड़ा-सा अन्तर पड़ता है। अत: यहाँ अरस, अरूप, अगंध और अस्पर्श – इन चार विशेषणों के विभिन्न अर्थों पर एक साथ ही विचार किया जा रहा है।
अरसादि चार विशेषणों के प्रथम अर्थ में यह कहा गया है कि पुद्गलद्रव्य से भिन्न होने के कारण, आत्मा में पुद्गल के रस, रूप, गंध और स्पर्श गुण भी नहीं है; अत: आत्मा अरस है, अरूप है, अगंध है और अस्पर्श है।
दूसरे अर्थ में यह कहा गया है कि पुद्गलद्रव्य के गुणों से भी भिन्न होने के कारण आत्मा स्वयं भी रसगुण नहीं है, रूपगुण नहीं है, गंधगुण नहीं है और स्पर्शगुण नहीं है; अत: आत्मा अरस है, अरूप है, अगंध है और अस्पर्श है। ___ पहले अर्थ में आत्मा को पुद्गलद्रव्य से भिन्न बताया गया है और दूसरे अर्थ में उसके रूप, रस आदि गुणों से भिन्न बताया गया है। अब तीसरे अर्थ में पुद्गलद्रव्य की द्रव्य-इन्द्रियरूप पर्याय से भिन्नता की बात करते हुए पुद्गल के स्वामित्व का निषेध करते हैं।
पहले और दूसरे अर्थ में पुद्गल से एकत्व का निषेध किया था और अब तीसरे अर्थ में पुद्गल के स्वामित्व का निषेध करते हैं; क्योंकि पर पुद्गल में ममत्वबुद्धि भी एकत्वबुद्धि के समान ही मिथ्यात्व है। यही कारण है कि इस तीसरे अर्थ में कहते हैं कि परमार्थ से आत्मा पुद्गलद्रव्य का स्वामी भी नहीं है, इसलिए वह द्रव्येन्द्रिय के माध्यम से रस को नहीं चखता, रूप को नहीं देखता, गंध को नहीं ढूंघता और स्पर्श को नहीं छूता; अत: वह अरस है, अरूप है, अगंध है और अस्पर्श है।