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गाथा ४९
प्रवृत्त होनेवाला ज्ञान – ये सब क्षायोपशमिकभाव हैं; इनका भी परमार्थदृष्टि से आत्मा में अभाव है; क्योंकि आत्मा का स्वरूप परिपूर्ण ज्ञान है। इस स्वभाव की दृष्टि से देखा जाय तो अल्पज्ञान का इसमें अभाव है। चैतन्य आत्मा पूर्णज्ञान की मूर्ति है, अत: अपूर्णज्ञान भी उसका नहीं है।"
पाँचवें अर्थ को स्वामीजी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
"आत्मा अखण्ड ज्ञायकभावरूप वस्तु है, वह पाँचों इन्द्रियों के विषयों को अखण्डरूप से जाननेवाला है; मात्र एक इन्द्रिय के विषय का वेदन करना अथवा उसे जानना आत्मा का स्वभाव नहीं है । पाँचों इन्द्रियों के ज्ञान का संवेदन एकसाथ आत्मा को हो'- यह आत्मा का स्वभाव है। इस कारण वह एक रसवेदना परिणाम को पाकर अर्थात् मात्र एक रस के ही ज्ञान को प्राप्त करके रस को नहीं चखता, अत: आत्मा अरस है।" __इस पाँचवें अर्थ में यह स्पष्ट किया गया है कि आत्मा अकेले रस को या अकेले रूप को या अकेली गंध को या अकेले स्पर्श को ही नहीं जानता है; वह तो सबको जानता है, सभी को जानना उसका स्वभाव है। पाँचों इन्द्रियों के विषयों को जानना उसका स्वभाव है। यही कारण है कि यहाँ कहा गया है कि समस्त विषयों के विशेषों में साधारण ऐसे एक ही संवेदनपरिणामरूप जीव का स्वभाव होने से, वह केवल एक रसवेदना परिणाम को पाकर रस नहीं चखता, केवल रूपवेदना परिणाम को पाकर रूप नहीं देखता, केवल गंधवेदना परिणाम को पाकर गंध नहीं सूंघता और केवल स्पर्शवेदना परिणाम को पाकर स्पर्श को नहीं छूता; अत: अरस है, अरूप है, अगंध है और अस्पर्श है।
२. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी) भाग-२, पृष्ठ २२५ ३. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी) भाग-२, पृष्ठ २२५-२६