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समयसार गाथा ३७ णत्थि मम धम्मआदी बुज्झदि उवओग एव अहमेक्को। तं धम्मणिम्ममत्तं समयस्य वियाणया बेंति ॥ ३७॥
( हरिगीत ) धर्मादि मेरे कुछ नहीं मैं एक हूँ उपयोगमय।
है धर्मनिर्ममता यही वे कहें जो जाने समय ॥ ३७॥ स्वपर और सिद्धान्त के जानकार आचार्यदेव ऐसा कहते हैं कि ये धर्म आदि द्रव्य मेरे कुछ भी नहीं हैं; मैं तो एक उपयोगमय ही हूँ;ऐसा जो जानता है, वह धर्म आदि द्रव्यों से निर्मम है। __ ३६वीं गाथा में भावकभाव से भेदज्ञान की बात की थी। अब इस ३७वीं गाथा में ज्ञेयभाव से भेदविज्ञान कराते हैं।
धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल और अपने आत्मा को छोड़कर अन्य सभी जीव, जिनमें अरहंत, सिद्ध आदि पंचपरमेष्ठी भी आ जाते हैं, शेष संसारीजीव तो हैं ही; - ये सभी ज्ञेय हैं । हमारे शरीर, मन, वाणी भी ज्ञेय ही हैं। इन सभी से मेरा भगवान आत्मा भिन्न है, उपयोगमय है। वह उपयोगमय निजभगवान आत्मा ही मैं हूँ और धर्मादि पदार्थ मेरे कुछ भी नहीं हैं। यह परमसत्य बात उन लोगों ने ही बताई है, जो आत्मा के अनुभवी हैं, सिद्धान्त के पारगामी, स्वमत और परमत के विशेषज्ञ हैं अथवा सर्वज्ञ परमात्मा हैं।
इस गाथा के भाव को आत्मख्याति में आचार्य अमृतचन्द्र इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
"निजरस से प्रगट, अनिवार्य विस्तार और समस्त पदार्थों को ग्रसित करने के स्वभाववाली, प्रचण्ड चिन्मात्र शक्ति के द्वारा कवलित (ग्रासीभूत) किये जाने से मानो अत्यन्त अन्तर्मग्न हो रहे हों, ज्ञान में