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समयसार अनुशीलन
अन्य कोई लोग तीव्र - मन्द अनुभागगत अध्यवसानों को जीव मानते हैं; दूसरे कोई नोकर्म को जीव मानते हैं ।
अन्य कोई कर्म के उदय को जीव मानते हैं और कोई तीव्रमंदतारूप गुणों से भेद को प्राप्त कर्म के अनुभाग को जीव इच्छते हैं, मानते हैं ।
अन्य कोई जीव और कर्म दोनों के मिले रूप को जीव मानते हैं और कोई अन्य कर्म के संयोग को ही जीव मानते हैं।
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इसप्रकार के तथा अन्य भी अनेक प्रकार के दुर्बुद्धि, मिथ्यादृष्टि जीव पर को आत्मा कहते हैं । वे सभी परमार्थवादी, सत्यार्थवादी, सत्य बोलनेवाले नहीं हैं ऐसा निश्चयवादियों ने सत्यार्थवादियों ने, सत्य बोलनेवालों ने कहा है ।
तात्पर्य यह है कि अध्यवसान, कर्म ( भावकर्म), अध्यवसानसंतति, शरीर, शुभाशुभभाव, सुख-दुःखादि कर्मविपाक, आत्मकर्मोभय और कर्मसंयोग को जीव कहनेवाले परमार्थवादी नहीं है; क्योंकि इनमें से कोई भी जीव नहीं हैं।
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उक्त गाथाओं के भाव को पंडित जयचंदजी छाबड़ा भावार्थ में इसप्रकार स्पष्ट कहते हैं
" जीव- अजीव दोनों अनादिकाल से एक क्षेत्रावगाहसंयोगरूप से मिले हुए हैं और अनादिकाल से ही पुद्गल के संयोग से जीव की अनेक विकारसहित अवस्थायें हो रही हैं । परमार्थदृष्टि से देखने पर, जीव तो अपने चैतन्यत्व आदि भावों को नहीं छोड़ता और पुद्गल अपने मूर्तिक जड़त्व आदि को नहीं छोड़ता । परन्तु जो परमार्थ को नहीं जानते, वे संयोग से हुये भावों को ही जीव कहते हैं, क्योंकि पुद्गल से भिन्न परमार्थ से जीव का स्वरूप सर्वज्ञ को दिखाई देता है तथा सर्वज्ञ की परम्परा के आगम से जाना जा सकता है । इसलिये जिनके मत में सर्वज्ञ नहीं है, वे अपनी बुद्धि से अनेक कल्पनायें करके कहते हैं ।