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विपरीत होने से दुःख ही है । आकुलता लक्षणवाले होने से सभी अध्यवसानादिभाव उसी दुःख में समाहित हो जाते हैं । इसप्रकार सभी अध्यवसानों को एक दुःख नाम से भी अभिहित किया जा सकता है । यद्यपि इन अध्यवसानों का चैतन्य के साथ अन्वय होने का भ्रम उत्पन्न होता है; तथापि ये हैं तो पुद्गलस्वभावी ही । "
गाथा ४५
आचार्य जयसेन भी लिखते हैं कि शुद्धनिश्चयनय से ये अध्यवसानादिभाव पौद्गलिक हैं ।
पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा इनकी पौद्गलिकता सरल-सुबोध शब्दों में इसप्रकार व्यक्त करते हैं
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" जब कर्मोदय आता है, तब यह आत्मा दुःखरूप परिणमित होता है और दुःखरूप भाव अध्यवसान हैं । इसलिए दुःखरूप भावों में चेतनता का भ्रम उत्पन्न होता है । परमार्थ से दुःखरूप भाव चेतन नहीं हैं, कर्मजन्य हैं; इसलिए जड़ हैं । "
इसप्रकार यह सुनिश्चित हुआ कि अज्ञानीजन जिन अध्यवसानादिभावों को जीव मानते हैं; वे वस्तुत: जड़ हैं, निश्चय से पौद्गलिक हैं; उन्हें किसी भी स्थिति में जीव नहीं माना जा सकता ।
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मार्गदर्शन की उपयोगिता
ज्ञानी गुरुओं के संरक्षण और मार्गदर्शन में ही आत्मा की खोज का पुरुषार्थ प्रारंभ होता है। यदि गुरुओं का संरक्षण न मिले तो यह आत्मा कुगुरुओं के चक्कर में फंसकर जीवन बर्बाद कर सकता है। तथा यदि गुरुओं का सही दिशा-निर्देश न मिले तो अप्रयोजनभूत बातों में ही जीवन बर्बाद हो जाता है । अत: आत्मोपलब्धि में गुरुओं के संरक्षण एवं मार्गदर्शन का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है ।
आत्मा ही है शरण, पृष्ठ १६७
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