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समयसार गाथा ४७-४८
आचार्यदेव ने ४६वीं गाथा में अध्यवसानादि भावों को जीव कहने की उपयोगिता बताकर शिष्यों को सन्तुष्ट तो कर दिया, पर अब शिष्य यह जानना चाहते हैं कि वह कौन-सा व्यवहार है, किसप्रकार का व्यवहार है कि जिसका यहाँ दिखाया जाना इतना आवश्यक था ? शिष्य किसी सरल - सुबोध उदाहरण के माध्यम से यह बात जानना चाहते हैं । ऐसा विचार कर इस बात को आचार्यदेव निम्नांकित गाथाओं द्वारा सोदाहरण समझाते हैं -
राया हु णिग्गदो त्तिय एसो बलसमुदयस्स आदेसो । ववहारेण दु उच्चदि तत्थेक्को णिग्गदो राया ॥ ४७ ॥ एमेव य ववहारो अज्झवसाणादि अण्णभावाणं । जीवो त्ति कदो सुत्ते तत्थेक्को णिच्छिदो जीवो ॥ ४८ ॥ ( हरिगीत )
सेना सहित नरपती निकले नृप चला ज्यों जन कहें ।
यह कथन है व्यवहार का पर नृपति उनमें एक है ॥ ४७ ॥ बस उस तरह ही सूत्र में व्यवहार से इन सभी को । जीव कहते किन्तु इनमें जीव तो बस एक है ॥ ४८ ॥ सेना सहित राजा के निकलने पर जो यह कहा जाता है कि 'यह राजा निकला' वह व्यवहार से ही कहा जाता है; क्योंकि उस सेना में वस्तुतः राजा तो एक ही होता है।
उसीप्रकार अध्यवसानादि अन्य भावों को 'ये जीव हैं ' इसप्रकार जो सूत्र (आगम) में कहा गया है, तो व्यवहार से ही कहा गया है । यदि निश्चय से विचार किया जाय तो उसमें जीव तो एक ही है ।
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