________________
समयसार गाथा ४९ 'यद्यपि अध्यवसानादि भावों को जिनागम में भी विभिन्न अपेक्षाओं से जीव कहा गया है; तथापि वे पारमार्थिक जीव नहीं है' - यह बात जीवाजीवाधिकार के आरम्भ से ही कहते आ रहे हैं। अत: अब शिष्य पूछता है कि यदि अध्यवसानादि भाव जीव नहीं हैं तो फिर एक, टंकोत्कीर्ण, परमार्थस्वरूप जीव कैसा है, उसका स्वरूप क्या है? इसी प्रश्न का उत्तर ४९वीं गाथा में दिया गया है, जो इसप्रकार है
अरसमरूवमगंधं अव्वत्तं चेदणागुणमसदं । जाण अलिंगग्गहणं जीवमणिदिट्ठसंठाणं ।। ४९॥
( हरिगीत ) चैतन्य गुणमय आतमा अव्यक्त अरस अरूप है।
जानो अलिंगग्रहण इसे यह अनिर्दिष्ट अशब्द है ।। ४९ ।। हे भव्य ! तुम जीव को अरस, अरूप, अगंध, अव्यक्त, अशब्द, अनिर्दिष्टसंस्थान, अलिंगग्रहण और चेतनागुणवाला जानो।
यह गाथा भगवान आत्मा का पारमार्थिक स्वरूप बतानेवाली होने से समयसार की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण गाथाओं में से एक गाथा है । यह गाथा न केवल समयसार में ही है, अपितु आचार्य कुन्दकुन्द कृत पाँचों ही परमागमों में पाई जाती है। प्रवचनसार में १७२वीं, नियमसार में ४६वीं, पंचास्तिकाय में १२७वीं एवं अष्टपाहुड के भावपाहुड में ६४वीं गाथा है और समयसार में यह ४९वीं गाथा है ही। __आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों के अतिरिक्त अन्य ग्रन्थों में भी यह गाथा पाई जाती है। धवल के तीसरे भाग में भी यह गाथा है और पद्मनन्दी पंचविंशतिका एवं द्रव्यसंग्रहादि में यह गाथा उचूत की गई है।