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अनिर्दिष्ट के चार, अलिंगग्रहण और चेतनागुणवाला का एक-एक - इसप्रकार कुल मिलाकर ब्यालीस विशेषण हो जाते हैं; जो सभी त्रिकाली ध्रुव भगवान आत्मा के स्वरूप को ही गहराई से स्पष्ट करते हैं ।
गाथा ४९
प्रवचनसार की तत्त्वप्रदीपिका में अलिंगग्रहण को छोड़कर शेष सभी विशेषणों का एक-एक अर्थ ही किया है; परन्तु अलिंगग्रहण के सामान्यार्थ के अतिरिक्त बीस अर्थ अलग से किये हैं, जो अपने-आप में अद्भुत हैं, गहराई से समझने योग्य हैं, मंथन करने योग्य हैं। यदि उनके सम्बन्ध में गहरी जिज्ञासा हो तो आध्यात्मिकसत्पुरुष श्रीकानजीस्वामी के तत्संबंधी प्रवचनों का गहराई से अध्ययन करना चाहिए। वे प्रवचन 'अलिंगग्रहण' नाम से पुस्तकाकार भी प्रकाशित हुए हैं।
उनके सम्बन्ध में अभी यहाँ विस्तृत प्रकाश नहीं डाला जायेगा; क्योंकि जब प्रवचनसार का अनुशीलन करेंगे, तब ही उन पर प्रकाश डालना उचित प्रतीत होता है । यहाँ तो आत्मख्याति में समागत अर्थों का अनुशीलन ही अपेक्षित है।
आत्मख्याति में इस गाथा का जो भाव स्पष्ट किया गया है, वह इसप्रकार है
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" (१) पुद्गलद्रव्य से भिन्न होने के कारण जीव में रसगुण नहीं है; अतः जीव अरस है ।
(२) पुद्गलद्रव्य के गुणों से भिन्न होने के कारण जीव स्वयं भी रसगुण नहीं है; अतः जीव अरस है ।
(३) परमार्थ से जीव पुद्गलद्रव्य का स्वामी भी नहीं है, इसलिए वह द्रव्येन्द्रिय के माध्यम से रस नहीं चखता; अतः अरस है ।
१. अलिंगग्रहण : प्रकाशक
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ब्र. दुलीचंद जैन ग्रंथमाला सोनगढ़ (सौराष्ट्र )