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गाथा ४७-४८
उत्तर - क्या बात करते हो? नयों के जानकारों को इतनी छोटी बात बताने की आवश्यकता नहीं रहती । वे तो नयों का नाम बिना बताये ही यह जान लेते हैं कि यह किस नय का कथन है ।
यहाँ यह जिज्ञासा तो साधारण पाठकों की ही है कि वह कौनसा व्यवहार हैं, किसप्रकार का व्यवहार है ? यही कारण है कि आचार्यदेव उदाहरण देकर समझा रहे हैं ।
यह बात भी तो है कि विशेषज्ञों को उदाहरणों की आवश्यकता नहीं होती । उदाहरणों से साधारण जिज्ञासु ही समझते हैं, समझाये जाते हैं । यही कारण है कि जैनदर्शन ने अनुमान के अंगों में उदाहरण को स्थान नहीं दिया है ।
आचार्य माणिक्यनंदी परीक्षामुख सूत्र में लिखते हैं "एतद् द्वयमेवानुमानांगं नोदाहरणम् दो अंग ही अनुमान के हैं, उदाहरण नहीं ।"
जब आचार्यदेव सामान्य शिष्यों को समझाना चाहते हैं, तभी उदाहरणों का उपयोग करते हैं । चूंकि यहाँ उन्होंने उदाहरण के माध्यम से ही समझाया है; अत: यहाँ उनकी दृष्टि में मुख्यरूप से वे ही शिष्य हैं, जिन्हें उदाहरण से समझाने की आवश्यकता होती है ।
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पक्ष और हेतु ये
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दूसरे सेना सहित राजा का उदाहरण देकर वे उक्त कथन के वजन को स्पष्ट करना चाहते हैं । मूल राजा को राजा कहने और सेना सहित राजा को राजा कहने में सत्यार्थता और असत्यार्थता के वजन का जितना अन्तर है, उतना ही अन्तर ज्ञायकभाव को जीव कहने और अध्यवसानादि भावों सहित जीव को जीव कहने में है ।
इसप्रकार ४६वीं गाथा में अध्यवसानादि भावों को जीव कहने की उपयोगिता बताने से पाठकों की दृष्टि में इस नय का जो अनपेक्षित वजन बढ़ गया था, इस उदाहरण से उस वजन को संतुलित किया गया है । १. परीक्षामुख तृतीय परिच्छेद, सूत्र ३३