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गाथा ४६
व्यवहारनय के नहीं बताये जाने पर और परमार्थ से जीव को शरीर से भिन्न बताये जाने पर, जिसप्रकार भस्म को मसल देने पर भी हिंसा नहीं होती; उसीप्रकार त्रस - स्थावर जीवों को निशंकतया मसल देने पर भी, कुचल देने पर भी हिंसा का अभाव ठहरेगा और इसीकारण बंध का भी अभाव सिद्ध होगा ।
दूसरी बात यह है कि परमार्थ से जीव को राग-द्वेष- मोह से भिन्न बताये जाने पर 'रागी-द्वेषी-मोही जीव कर्म से बंधता है, अतः उसे छुड़ाना' इसप्रकार के मोक्ष के उपाय के ग्रहण का अभाव हो जाने से मोक्ष का भी अभाव हो जावेगा ।
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इसप्रकार यदि व्यवहारनय नहीं बताया जाय तो बंध और मोक्ष दोनों का अभाव ठहरता है । "
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आत्मख्याति में प्रतिपादित उक्त विषयवस्तु को सरस- सुबोध भाषा में स्पष्ट करते हए भावार्थ में पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा लिखते हैं
" परमार्थनय तो जीव को शरीर तथा राग-द्वेष- मोह से भिन्न कहता है । यदि इसी का एकान्त ग्रहण किया जाये तो शरीर तथा राग-द्वेषमोह पुद्गलमय सिद्ध होंगे तो फिर पुद्गल का घात करने से हिंसा नहीं होगी तथा राग-द्वेष- मोह से बन्ध नहीं होगा। इसप्रकार परमार्थ से जो संसार - मोक्ष दोनों का अभाव कहा है, एकान्त से यह ही ठहरेगा; किन्तु ऐसा एकान्तरूप वस्तु का स्वरूप नहीं है । अवस्तु का श्रद्धान- ज्ञानआचरण अवस्तुरूप ही है, इसलिए व्यवहारनय का उपदेश न्यायप्राप्त है। इसप्रकार स्याद्वाद से दोनों नयों का विरोध मिटाकर श्रद्धान करना सो सम्यक्त्व है । "
गाथा, आत्मख्याति और जयचन्दजी के भावार्थ सभी में अध्यवसानादिभावों को व्यवहार से जीव कहने की आवश्यकता और उपयोगिता पर जो भी प्रकाश डाला गया है; उसमें दो बातें स्पष्ट होती हैं
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