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समयसार गाथा ४६ अब यहाँ एक प्रश्न उपस्थित होता है कि जब अध्यवसानादिभाव पौद्गलिक हैं, पुद्गल स्वभावी हैं तो फिर जिनागम में ही इन्हें जीवरूप क्यों कहा गया है? आगम में अनेक स्थानों पर इन्हें जीव कहा है। इसप्रकार एक ही आगम में इन्हें कहीं जीवरूप और कहीं पुद्गलरूप क्यों कहा है?
इस समस्या के समाधान के लिए ही ४६वीं गाथा रची गई है, जिसमें इस समस्या का समाधान सयुक्ति प्रस्तुत किया गया है। गाथा मूलत: इसप्रकार है -
ववहारस्स दरीसणमुवएसो वण्णिदो जिणवरेहिं । जीवा एदे सव्वे अज्झवसाणादओ भावा॥४६॥
( हरिगीत ) ये भाव सब हैं जीव के जो यह कहा जिनदेव ने।
व्यवहारनय का पक्ष यह प्रस्तुत किया जिनदेव ने ॥ ४६॥ 'ये सब अध्यवसानादिभाव जीव हैं' - इसप्रकार जो जिनेन्द्रदेव ने उपदेश दिया है, वह व्यवहारनय दिखाया है।
उक्त गाथा का भाव आत्मख्याति में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है
"ये सब अध्यवसानादिभाव जीव हैं - भगवान सर्वज्ञदेव ने यह कहकर अभूतार्थ होने पर भी व्यवहारनय को भी बताया है; क्योंकि म्लेच्छों के लिए म्लेच्छभाषा के समान व्यवहारनय भी व्यवहारीजनों के लिए परमार्थ का प्रतिपादक है, परमार्थ को बतानेवाला है। ____ अपरमार्थभूत होने पर भी धर्मतीर्थ की प्रवृत्ति के लिए व्यवहारनय का दिखाया जाना भी न्यायसंगत ही है।