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गाथा ३९-४३
(६) कोई कहते हैं कि साता-असातारूप से व्याप्त समस्त तीव्रमंदत्वगुणों से भेदरूप होने वाला कर्म का अनुभव ही जीव है; क्योंकि सुख-दुःख से अन्य अलग कोई जीव दिखाई नहीं देता।
(७) कोई कहते हैं कि श्रीखण्ड की भाँति उभयरूप मिले हुए आत्मा और कर्म – दोनों ही मिलकर जीव है; क्योंकि सम्पूर्णत: कर्मों से भिन्न कोई जीव दिखाई नहीं देता।
(८) कोई कहते हैं कि अर्थक्रिया (प्रयोजनभूत क्रिया) में समर्थ कर्मसंयोग ही जीव है; क्योंकि जिसप्रकार आठ लकड़ियों के संयोग से भिन्न अलग कोई पलंग दिखाई नहीं देता; उसीप्रकार कर्मों के संयोग से भिन्न अलग कोई जीव दिखाई नहीं देता।
- इसप्रकार आठ प्रकार तो यहाँ कहे ही हैं; परन्तु पर को आत्मा माननेवाले दुर्बुद्धि मात्र इतने ही नहीं हैं; और भी अनेक प्रकार के दुर्बुद्धि जगत में हैं, जो पर को ही आत्मा मानते हैं; किन्तु वे सब परमार्थवादी नहीं हैं, सत्यार्थवादी नहीं हैं, सत्य बोलनेवाले नहीं हैं - ऐसा परमार्थवादी कहते हैं, निश्चयनय के जानकर कहते हैं, सर्वज्ञ परमात्मा कहते हैं।" ___ उक्त कथन में जिन आठ प्रकार के पदार्थों या भावों को जीव कहा गया है; उन्हें जीव मानने में एक ही तर्क दिया गया है कि उनसे भिन्न अन्य कोई जीव उन्हें दिखाई नहीं देता; और यह तर्क भी उनके स्वयं के अनुभव के आधार पर ही प्रतिष्ठित है। ___ आगामी गाथा में उनकी इस मान्यता पर सतर्क विचार किया जायेगा।
उपदेश कोई दवा तो है नहीं, जो व्यक्तिगत दी जावे।
___ - सत्य को खोज, पृष्ठ ३९