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समयसार गाथा ४४
३९ से ४३वीं गाथा तक जिन आठ प्रकार के मिथ्यावादियों की चर्चा की गई है, वे सत्यार्थवादी क्यों नहीं हैं; उनके द्वारा माना गया आत्मा का स्वरूप सच्चा क्यों नहीं है ?
इस प्रश्न के उत्तर में ४४वीं गाथा का जन्म हुआ है; क्योंकि उक्त गाथाओं में परात्मवादियों की मान्यता पर तो प्रकाश डाला गया है और यह भी कहा गया है कि वे सत्यार्थवादी नहीं हैं, पर यह नहीं बताया गया है कि वे सत्यार्थवादी क्यों नहीं हैं ? अतः यह प्रश्न उठना स्वाभाविक ही है ।
इसी प्रश्न का समाधान यह ४४वीं गाथा करती है, जो इसप्रकार हैएदे सव्वे भावा पोग्गलदव्वपरिणामणिप्पण्णा । केवलिजिणेहिं भणिया कह ते जीवो त्ति वुच्चति ॥
( हरिगीत )
ये भाव सब पुद्गल दरव परिणाम से निष्पन्न हैं । यह कहा है जिनदेव ने 'ये जीव हैं' कैसे कहें?
पूर्वकथित अध्यवसान आदि सभी भाव पुद्गलद्रव्य के परिणाम से उत्पन्न हुए हैं ऐसा केवली भगवान ने कहा है; अत: उन्हें जीव कैसे कहा जा सकता है?
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उक्त गाथा में सर्वज्ञ परमात्मा की दुहाई देकर यह बात कही गई है कि जिन्हें सर्वज्ञ भगवान और उनका आगम पौद्गलिक कहता है; अतः उन्हें जीव कैसे माना जा सकता है ?
गाथा में तो मात्र सर्वज्ञ कथित आगम की बात कही है, पर आचार्य अमृतचन्द्र आगम के साथ युक्ति और अनुभव की बात भी करते हैं ।