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समयसार अनुशीलन
प्रापति न वै है कछु ऐसौ तू विचारतु है, सही ह्वै है प्रापति सरूप यौं ही जानु रे । '
हे जगत के वासी भाइयो! मेरा यह एक उपदेश तुम अवश्य ही स्वीकार करलो कि तुम जगत से उदास होकर एक छह महिने तक और सभी प्रकार के संकल्प - विकल्प छोड़कर, संकल्प-विकल्प के विकारों को छोड़कर, एकान्त में बैठकर अपने मन को एक आत्मा में लगा दो । मानो तुम्हारा यह शरीर ही तालाब है, शरीररूपी तालाब में तुम स्वयं कमल के स्थान पर हो और अब तुम ही मधुकर ( भौंरा ) बनकर, उस कमल की सुगंध को पहिचान लो ।
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यदि तुम ऐसा सोचते हो कि इसप्रकार करने पर भी आत्मा की प्राप्ति नहीं होगी तो तुम्हारा यह विचारना सही नहीं है; क्योंकि वस्तु का स्वरूप ही ऐसा है । अत: ऐसा उद्यम करने पर तुझे आत्मा की प्राप्ति अवश्य ही होगी । "
आचार्य अमृतचन्द्र एवं कविवर बनारसीदासजी की बात को और अधिक बल प्रदान करते हुए पण्डित जयचंदजी छाबड़ा भावार्थ में लिखते हैं
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"यदि अपने स्वरूप का अभ्यास करे तो उसकी प्राप्ति अवश्य होती है; यदि परवस्तु हो तो उसकी तो प्राप्ति नहीं होती। अपना स्वरूप तो विद्यमान है, किन्तु उसे भूल रहा है; यदि सावधान होकर देखे तो वह अपने निकट ही है।
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यहाँ छहमास के अभ्यास की बात कही है इसका अर्थ यह नहीं समझना चाहिए कि इतना ही समय लगेगा। उसकी प्राप्ति तो अन्तर्मुहूर्त मात्र में ही हो सकती है, परन्तु यदि शिष्य को बहुत कठिन मालूम होता हो तो उसका निषेध किया है।
१. समयसार नाटक, अजीवद्वार, छन्द ३