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समयसार अनुशीलन की पर्यायमात्र नहीं है तथा जो पर्याय में ज्ञात हुए बिना भी नहीं रहता - ऐसे शुद्धात्मा को तूने पूर्व में कभी जाना नहीं, पहिचाना नहीं और उसके अस्तित्व को स्वीकार किया नहीं; इसलिए कठिन लगता है।"
वस्तुत: निज आत्मा की प्राप्ति उतनी कठिन है नहीं, जितनी समझ ली गई है; क्योंकि वह भगवान आत्मा तू स्वयं ही है और उसे जानना भी स्वयं को ही है । अत: यह क्रिया पूर्णतः स्वाधीन है, इसमें रंचमात्र भी पराधीनता नहीं है।
यदि आपको एक कप चाय पीना हो तो उसमें अनंत पराधीनता है; क्योंकि एक कप चाय बनाने के लिए चाय की पत्ती चाहिए, दूध चाहिए, चीनी चाहिए, पानी चाहिए, तपेली चाहिए, ढक्कन चाहिए, अग्नि चाहिए, ईंधन चाहिए, जलाने के लिए माचिस चाहिए, चलनी चाहिए, कप-बसी चाहिए; न मालूम क्या-क्या चाहिए। इतनी सब सामग्री जुट जाय, तब कहीं जाकर एक कप चाय पीने को मिलेगी; पर आत्मा को जानने के लिए परपदार्थों की रंचमात्र भी आवश्यकता नहीं है; क्योंकि स्वयं को, स्वयं के द्वारा स्वयं ही जानना है। ज्ञानज्ञाता-ज्ञेय - सब तू स्वयं ही है; अत: पर की ओर झांकने की भी आवश्यकता नहीं है।
अतः यहाँ यह कहा गया है कि इस अकार्य कोलाहल से विराम लेकर छहमास तक एकाग्रचित्त होकर लगातार देहदेवल में विराजमान, परन्तु देह से भिन्न निज भगवान आत्मा को जानने-पहिचानने और उसी का अनुभव करने का प्रयास कर । ऐसा करने पर तुझे आत्मा की प्राप्ति अवश्य होगी; क्योंकि आत्मा की प्राप्ति का स्वरूप ऐसा ही है, विधि ऐसी ही है, प्रक्रिया ऐसी ही है। __ अकार्यकोलाहल माने व्यर्थ का हल्ला-गुल्ला, व्यर्थ का बकवाद। जिस वचनालाप से, तर्क-वितर्क से कोई लाभ न हो, अपने मूल १. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी) भाग-२, पृष्ठ १९६