________________
समयसार अनुशीलन
380
भेदज्ञानियों के अनुभव पर भी पूरा भरोसा है। उनके इस प्रतिपादन की विधि से ही यह स्पष्ट है कि वे इस कथन के माध्यम से अपने शिष्यों को ही सुधारना चाहते हैं, अन्यमतवालों को नहीं। । अत: अन्य विकल्पों से विराम लेकर सर्वज्ञकथित और भेदज्ञानियों द्वारा अनुभूत आत्मा को जानकर आत्मकल्याण में प्रवृत्त होना चाहिए।
उक्त आठ प्रकार की मान्यताओं में जिन्हें जीव माना जाता है, उनमें मुख्यरूप से द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्म ही आते हैं; क्योंकि इन तीनों में पुद्गलमय शरीर, पौद्गलिक कर्म और उनके उदय में होनेवाले सभी औदयिकभाव – शुभाशुभभाव, सांसारिक सुख-दुःख, जीव और कर्म का संयोग आदि सभी आ जाते हैं।
यद्यपि इन सभी को परमागमरूप अध्यात्म में पुद्गल ही. कहा है; तथापि अज्ञानीजन इनमें से ही किसी न किसी को जीव मान लेते हैं; क्योंकि इनसे भिन्न कोई ज्ञानानन्दस्वभावी भगवान आत्मा उन्हें दिखाई नहीं देता और न वे उसे सर्वज्ञकथित आगम के आधार पर ही स्वीकार कर पाते हैं।
यही कारण है कि इस ४४वीं गाथा में उन्हें सर्वज्ञकथित आगम और भेदज्ञानियों के स्वानुभव से गर्भित प्रबलयुक्ति के माध्यम से समझाने का प्रयास किया गया है।
पुद्गल से भिन्न आत्मा की उपलब्धि के प्रति विवाद करनेवालों, विरोध करनेवालों, पुद्गल को ही आत्मा माननेवालों को सर्वज्ञवचनरूप
आगम और स्वानुभवगर्भित युक्तियों से समझाकर अब समताभाव से मिठासपूर्वक समझाते हुए आचार्य अमृतचन्द्र आगामी कलश में कहते हैं कि अब इस तर्क-वितर्क के जाल से विराम लेकर, इस अकार्य कोलाहल से विराम लेकर छहमाह तक पुद्गल से भिन्न निज भगवान आत्मा को प्राप्त करने का उद्यम करो तो तुम्हें भगवान आत्मा की प्राप्ति अवश्य होगी।