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समयसार अनुशीलन मिलावट जीव नहीं है और अर्थक्रिया करने में समर्थ कर्म का संयोग भी जीव नहीं है; क्योंकि इन सबसे भिन्न अन्य चैतन्यस्वभावरूप जीव भेदज्ञानियों द्वारा स्वयं उपलभ्यमान है अर्थात् वे स्वयं उसका प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं।
प्रश्न -एक ही युक्ति से आठों प्रकार की गलत मान्यताओं का निराकरण कैसे हो गया?
उत्तर -क्योंकि सभी लोगों ने अपनी बात सिद्ध करने के लिए आखिर एक ही युक्ति तो दी थी कि अध्यवसान ही जीव है, क्योंकि अध्यवसान से भिन्न कोई अन्य जीव दिखाई नहीं देता; कर्म ही जीव है, क्योंकि कर्म से भिन्न कोई अन्य जीव दिखाई नहीं देता; नोकर्म (शरीर) ही जीव है, क्योंकि शरीर से भिन्न कोई अन्य जीव दिखाई नहीं देता।
इसीप्रकार आठों पर घटित करके देख सकते हैं । दिखाई नहीं देने' की एक ही युक्ति सभी ने दी तो 'भेदज्ञानियों को प्रत्यक्ष अनुभव में आता है, दिखाई देता है' - इस एक ही युक्ति से सभी धराशायी हो गये।
सीधी-सच्ची बात यह है कि इन समस्त परपदार्थों से भिन्न भगवान आत्मा भेदज्ञानियों के अनुभव में आता है और सर्वज्ञ भगवान की वाणी में भी आया है। अतः सर्वप्रकार के विवादों से परे होकर उसका सही स्वरूप समझकर उसी का अनुभव करने का प्रयास किया जाना चाहिए।
प्रश्न -'आठ प्रकार के भाव जीव नहीं हैं' - यह सिद्ध करने के लिए आपने भी स्वानुभवगर्भित युक्ति दी है और उन्होंने भी उन भावों को जीव सिद्ध करने में स्वानुभवगर्भित युक्ति दी है। दोनों में ऐसा क्या अन्तर है कि आपकी स्वानुभवगर्भित युक्ति तो स्वीकार की जावे और उनकी नहीं?