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गाथा ४४
मान्यतायें हों तो उनका भी निराकरण इसीप्रकार किया जा सकता है और किया जाना चाहिए।
तात्पर्य यह है कि सर्व परभावों से भिन्न चैतन्यस्वभावी जीव भेदज्ञानियों के अनुभवगोचर है, अत: अज्ञानियों द्वारा कल्पित मान्यतायें ठीक नहीं हैं।
प्रश्न -आपने तो कहा था कि यह स्वानुभवगर्भित युक्ति है; पर यहाँ तो आपने आठ युक्तियाँ दे डाली। यदि आठ युक्तियाँ ही देनी थीं तो एक वचन का प्रयोग क्यों किया? बहुवचन का प्रयोग करना चाहिए था, ऐसा लिखना चाहिए था कि ये स्वानुभवगर्भित युक्तियाँ हैं।
उत्तर -अरे, भाई ! युक्ति तो एक ही दी है; पर उससे आठ प्रकार की उल्टी मान्यताओं का निराकरण किया जाने से उसे ही आठ बार देना पड़ा है। आठों को एकसाथ मिलाकर बात करने पर एकबार कहने से भी काम चल सकता था।
प्रश्न -यदि ऐसा है तो ऐसा ही क्यों नहीं किया?
उत्तरं —ऐसा करने पर लम्बा वाक्य हो जाने से समझने में कठिनाई होती है। सरलता से समझ में आ जावे; इसलिए इतना विस्तार किया है, पुनरावृत्ति की है, एक ही बात को आठ बार दुहराया है।
प्रश्न –यदि पुनरावृत्ति नहीं करते तो वाक्य कैसा बनता? बनाकर बताइये न?
उत्तर - हाँ, हाँ; क्यों नहीं, बताते हैं। स्वयं उत्पन्न हुए राग-द्वेषरूप अध्यवसान जीव नहीं हैं, अनादिअनंत संसरणरूप क्रिया में क्रीड़ा करता हुआ कर्म जीव नहीं है, रागरस से भरे हुए अध्यवसानों की संतति जीव नहीं है, नोकर्मरूप शरीर जीव नहीं है, शुभाशुभभावरूप कर्मविपाक जीव नहीं है, तीव्रता-मंदता और सुख-दुःखरूप कर्म का अनुभव जीव नहीं है, आत्मा और कर्म की