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समयसार अनुशीलन
(६) योगादिसम्मत जैसा सुख-दुख मात्र ही जीव हो
नहीं है।
(७) नैयायिकादिसम्मत जैसा आत्मकर्मोभय जीव हो
नहीं है।
(८) चार्वाकादिसम्मत जैसा कर्मादि के संयोगमात्र जीव हो
ऐसा नहीं है । "
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ऐसा
ऐसा
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जयचंदजी के भावार्थ एवं वर्णीजी के तथ्यप्रकाश में जिन आठ मतों का उल्लेख है; उनका स्पष्ट उल्लेख न तो मूल गाथाओं में है और न आचार्य अमृतचन्द्र की आत्मख्याति टीका में ही है। आचार्य जयसेन कृत तात्पर्यवृत्ति में भी मात्र चार्वाक का उल्लेख है, अन्य किसी का उल्लेख नहीं है ।
उक्त बात की ओर ध्यान दिलाने का आशय यह कदापि नहीं है कि उक्त बात में दम नहीं है; क्योंकि मतार्थ की दृष्टि से अर्थ करने पर उक्त अर्थ प्रतिफलित होते ही हैं और अर्थ करने की पाँच विधियों में एक मतार्थ भी है ।
इस बात की ओर ध्यान दिलाने का मूल प्रयोजन तो मात्र यह है कि हम जैनों में भी उक्त प्रकार की मान्यताओं की ओर झुकाववाले लोग पाये जाते हैं ।
इसप्रकार के शिष्यों को समझाने के लिए ही आचार्यदेव ने ये गाथाएं लिखी हैं । अतः यदि हमारे अभिप्राय में भी इसप्रकार की कोई मान्यता छुपी हो तो हमें भी इन गाथाओं के माध्यम से उसका परिमार्जन कर लेना चाहिए। ये बातें तो अन्य मत के खण्डन के लिए हैं - ऐसा सोचकर इनकी उपेक्षा करना उचित नहीं है ।
प्रश्न – आपने कहा कि अर्थ करने की पाँच विधियाँ हैं । वे कौनकौन-सी हैं ? उनको भी संक्षेप में समझाइये न ? इनकी चर्चा कहीं आगम में भी आती है क्या?