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समयसार अनुशीलन
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आत्मा के दर्शन करें, उसके ज्ञानसागर में डुबकी लगावें, उसके आनन्दरस में मग्न हो जावें।
एक तीसरा अर्थ यह भी हो सकता है कि भगवान के केवलज्ञान में समस्त पदार्थ झलकते हैं । अत: हे जगत के प्राणियों, तुम उसे देखो; अर्थात् केवलज्ञान की श्रद्धा करो और उसके माध्यम से अपने आत्मा और जगत के स्वरूप को जानो। __ जो भी हो, पूर्वरंग प्रकरण का अन्तिम कलश होने से इस कलश में आचार्य अमृतचन्द्रदेव ने अपने शिष्यों को, पाठकों को ज्ञान और आनन्द से लबालब भरे हुए इस भगवान आत्मा को देखने-जानने और इसी में जमने-रमने का आदेश दिया है, उपदेश दिया है, आशीर्वाद दिया है, आमंत्रण दिया है, प्रेरणा दी है; वह सब कुछ दिया है, जो उनके पास अपने शिष्यों को, पाठकों को देने के लिए था। ____ आचार्य अमृतचन्द्र उक्त ३८ गाथाओं के प्रकरण को पूर्वरंग कहते हैं। इसके आगे ३९वीं गाथा से ६८वीं गाथा तक के प्रकरण का नाम वे जीवाजीवाधिकार रखते हैं। इस तरह उनके अनुसार यहाँ पूर्वरंग समाप्त होता है। _आचार्य जयसेन आरंभ की १४ गाथाओं को पीठिका कहते हैं । उन १४ गाथाओं में अमृतचन्द्र की टीका की १२ गाथायें ही आती हैं। उसके बाद की गाथा जो आत्मख्याति की १३वीं गाथा है और तात्पर्यवृत्ति की १५वीं गाथा है - उसमें नौ तत्त्वों के नाम आते हैं। अतः उसके बाद की गाथा से आचार्य जयसेन जीवाधिकार मानते हैं; जो यहाँ तक चलता है। इसके बाद के प्रकरण को वे अजीवाधिकार कहते हैं; जो कर्ताकर्म अधिकार के आरंभ होने तक चलता है। ___ आचार्य जयसेन ने नौ तत्त्वों के नाम वाली गाथा को न तो पीठिका में ही रखा है और न जीवाधिकार में ही। ऐसा क्यों किया गया - इसके बारे में कुछ भी कहना संभव नहीं है।