________________
जीवाजीवाधिकार इस अधिकार की विषयवस्तु स्पष्ट करते हुए कलश टीकाकार पाण्डे राजमलजी लिखते हैं -
"अबतक विधिरूप से शुद्धाङ्ग तत्त्वरूप जीव का निरूपण किया, अब आगे उसी जीव का प्रतिषेधरूप निरूपण करते हैं । उसका विवरण - जीव शुद्ध है, टंकोत्कीर्ण है, चिद्रूप है – ऐसा कहना विधि कही जाती है। जीव का स्वरूप गुणस्थान नहीं है, कर्म-नोकर्म जीव के नहीं हैं, भावकर्म जीव का नहीं है; - ऐसा कहना प्रतिषेध कहलाता
है।"
__उक्त कथन से स्पष्ट है कि इस अधिकार में यह स्पष्ट करनेवाले हैं कि अज्ञानी जीव अपने अज्ञान के कारण किन-किन पदार्थों को जीव मानते आ रहे हैं और वे वास्तविक जीव क्यों नहीं हैं?
प्रश्न –पूर्वरंग में सभी कथन विधिपरक ही हों – ऐसी बात तो नहीं हैं ; क्योंकि उसमें भी अनेक बातें प्रतिषेधरूप हैं । जैसे - आत्मा प्रमत्त नहीं हैं, अप्रमत्त भी नहीं है, एक ज्ञायकभावरूप ही है । तथा इस जीवाजीवाधिकार में भी कुछ कथन विधिपरक पाये जाते हैं । जैसे - आत्मा चेतनागुणवाला है।
अतः यह कैसे कहा जा सकता है कि पूर्वरंग में सभी कथन विधिपरक हैं और जीवाजीवाधिकार में प्रतिषेधपरक?
उत्तर ---अरे, भाई! यह कथन मुख्यता की अपेक्षा है । पूर्वरंग में मुख्यरूप से विधिपरक कथन है और जीवाजीवाधिकार में मुख्यरूप से निषेधपरक कथन है। उक्त कथन का यही आशय समझना चाहिए।
१. समयसार कलश, कलश ३३वें की टीका